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________________ [१८] इच्छा की बेल शास्त्रकार का हृदय माता के समान होता है । जैसे माता अपने छोटे-बड़े विभिन्न बच्चों के लिए उनकी शक्ति और स्थिति को देखकर यथा योग्य भोजन प्रस्तुत करती है । दूध पीने वाले को दूध, अन्न ग्रहण करने वाले के सुस्वादु अन्न और रोगी के लिए पथ्य, हल्का भोजन रखती है । वीतराग भगवान् भी इसी प्रकार साधक लोगों को ज्ञान की खुराक देते हैं । वे जानते हैं कि मनुष्य रोगी है और उसे उसके रोग के अनुसार ही खुराक देना उपयुक्त रहेगा । जिसका कर्मरोग प्रबल हो वह मिथ्यात्व निवारण रुप शुद्ध पौष्टिक भोजन को अधिक ग्रहण नहीं कर सकता । उसके लिए गृहस्थ धर्म रूपी हल्का आहार सुझाया गया है और पूर्ण त्याग विराग की खुराक शक्तिशाली समर्थ साधकों के लिए प्रस्तुत की गई है, पूर्णत्यागी साधक को कमजोरी की शिकायत नहीं रहती। आनन्द ने स्वेच्छा से अपनी इच्छारूपी बेल के विस्तार को सीमित कर लिया । जैसे तार, बांस या लकड़ी का मण्डप बनाकर बेल का फैलाव सीमित कर दिया जाता है उसी प्रकार आनन्द ने भी व्रतों और नियमों के द्वारा इच्छाओं को नियन्त्रित कर लिया । द्रव्यों का परिमाण कर लेने से चाहना की बेल भी उस परिमित स्थान में ही सीमित हो जाती है। आनन्द ने मन की आकुलता को अधिक न बढ़ने देकर वर्तमान सम्पत्ति के विस्तार में व्रतों के द्वारा रोक लगा दी। काया की हिंसा की तरह मन की हिंसा में भी नियन्त्रण किया जाना चाहिए। पर मन की हिंसा संयम, और ज्ञान द्वारा बचाई जा सकती है । वह दबाव से नहीं मिटती । प्राचीन समय की बात है जणकि महाराज श्रेणिक मगध का शासन कर रहे थे । उस समय वहां की राजधानी पाटलिपुत्र में कालसौर नाम का एक कसाई रहता था, जो नित्य पांच-सौ भैसे काटता था । इस महा हिंसा को रोकने के
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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