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________________ 94 आध्यात्मिक आलोक कसाई ने तो अधर्म को ही धर्म समझ रखा था और इसीलिए वह उससे अलग होने को तैयार नहीं हुआ। यदि कोई धर्म की गलत परिभाषा करे, तो यह भी धर्म के साथ अन्याय करना है । महाराज श्रेणिक ने कसाई को कालकोठरी में बन्द कर दिया । फिर भी कसाई वहां शरीर के मैल से भैंसा बनाकर मारने लगा । इस प्रकार उसके द्वारा शरीर से तो हिंसा कार्य बन्द रहा परन्तु मन की संकल्पजा । मानसिक) हिंसा चाल ही रही। मन की हिंसा ज्ञान से ही बचाई जा सकती है। यदि ज्ञान का प्रकाश न हो, तो मन की हिंसा नहीं बचाई जा सकती। वासनालता को सीमित रखने से पाप का भार घटेगा । सुसंगति और. सदशास्त्र पाप की प्रवृत्ति को सुधारने के अच्छे साधन हैं । सुसंगति पाकर भी यदि मनुष्य पाप का बोझ न घटा सके तो उसका दुर्भाग्य है । किसी कवि ने ठीक ही कहा है। कुसंगत में बिगड़ा नहीं, वांका बड़ा सुभाग । सुसंगत में सुधरिया नहीं, वांका बड़ा अभाग ।। नरश्रेष्ठ स्थूलभद्र एक ऐसे ही आदर्श पुरुष थे जो अतिथि के रूप में रूपकोषा के घर आए, परन्तु कुछ काल रूपकोषा के साथ रहने पर उसके संस्कार इन पर डोरे डालने लगे । जन-मन-मोहिनी उस वेश्या ने स्थूलभद्र को अपने में उसी प्रकार समेट लिया जैसे कमलिनी भौरे को अपने अन्दर समेट लेती है । वेश्यागामी पुरुषों में धर्म, धन और शरीर को क्षति पहुँचाने वाले असंख्य लोग मिल सकते हैं। किन्तु गुण के ग्राहक स्थूलभद्र सरीखे दूसरे नहीं मिलेंगे । राजा या महामन्त्री के पारिवारिक सदस्यों को आदि से अन्त तक प्रसन्न रखना कठिन कार्य है, किन्तु रूपकोषा ने स्थूलभद्र के चित्त को चुराकर स्ववश में कर लिया । वे गणिका के घर मन हरण विद्या सीखने आए थे, किन्तु अपना परमोद्देश्य भूल गए और रूपकोषा में ही तल्लीन हो गए । मनहरण कला सीखने की जगह स्वयं का मन हरण हो गया। स्थूलभद्र के लालन-पालन के लिए महामन्त्री शकटार ने अपना खजाना खोल दिया । रूपकोषा को मुंहमांगा धन मिला और वह स्थूलभद्र की प्रेम-पात्रा बन गई । स्थूलभद्र के मन को रूपकोषा ने जीत लिया । . शकंटार मन में सोचते थे कि अनेक कलाओं की शिक्षा लेकर उनका पुत्र कुल का दीपक बनेगा और परिवार को सुख पहुँचाएगा । इस तरह सोचते वर्षों बीत गये, मगर स्थूलभद्र वापिस नहीं आया तो महामन्त्री को चिन्ता हुई। उनके मन में अनेक कुशंकाएं उठने लगी । सुसंगति का मतलब यह होता है कि ग्रहण करने योग्य वस्तु लेकर साधक वापिस लौट आवे और निज गुणों को नहीं खोवे । जैसे गोता-खोर समुद्र में गोता लगाकर कीचड़, गन्दगी और खारे पानी में जाकर भी रत्न
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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