SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - the to a धर्मवद्धन ग्रन्थावली ओ जगि मूढपति जिनकी हग,आद्र सके उपमान कही है। दर्पण मे प्रगटे सब रूप त्यु, मूढ में द्रव्य दशा उमही है। सम्बगवंत मुदा दि सिला सम, और की छाह सु काज नहीं है। , दीसत एक मयूर ही नृत्यत, त्यु चितवतके आत्तम ही है ॥ १८ ॥ उत को गेह, कुपात को नेह, रू झखर मेह जूआर को नाणो । ' ठार को तेहरूछारको लिपन, जारको सुख अनीति को राणो।। काटि कडंवर जीरण अंबर, मूढ सुं गूढ टक्यो न पिछाणौ । यु धर्मसीह कहै सुणि सज्जन, आथि इ नाही' की साथि न जानो ।। १६ ।। अंग मरोरत तोरत है तृण, मोरत है करका अविच्छन । राति रहै डरतौ घर भीतरि, भी फिरतो फिरतो कर भच्छन । भूमि लिखे मिसले पग सु, जु अटट्ट हसै मसलै पुनि अच्छन । सोइ रहै न गहै धर्मसीख कु, लच्छि कहां जहा ऐते कुलच्छन ॥ २० ॥ अनृप ही स्प कलाविद कोविद, है सिरदार सबै सुमति को। साहसगीर महा वडवीर, सुधीर करूर करारी छती को। सार उदार अपार विचार, सबै गुण धारि अचार सती को। एती सयान है धर्मसी पुनि, . एक रती विनु एक रती कौ ॥२२॥ काकसी कोकिल श्याम सरीर है, क्रोध गभीर धरै मन माहिं । और कैं वालक सुधरै दोप, पै पोखत आपहीके सुत नाहि ।
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy