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________________ धर्म वावनी नित की करे निहोर, जाहि ताहि जनका। जूअनि को जालौ अग कोढ़ी महाकाली रंग , ' ताही सुवनावै संग, धारै लोभ धनका । ऐसो कहे धर्मसीह, रहैं वासु राति दीह ; सो तो भैया चाक हुं, बड़ा रोझ वन का ॥१४॥ सवैया तेवीसा है to to लीजत ही जल कूप को निर्मल, सैंथि धर्यो दुगंध ही हूँ है । फूलिनि को परै भोग भलो, पुनि राति रहै कोई हाथि न लैहै । दूर तजो चित की तृष्णा नर, जौ लु कोऊ दिन पुन्य उदै है। यु धर्मसीह कहे कछु देहु, दिलाउरे गाडि धर्यो धन धूरि हू जै है ॥ १५ ॥ एक के पाइ अनेक परै फुनि एक अनेक के पाइ परै है। एक अनेक की चिंत हरें, अरु एक न आपनो पेट भरै है। एक खुस्याल सुवै सुख साल में, एककुखंथ न खाट जुर है। देखो वे यार कहै धर्मसी जग, पुन्यरु पाप परतिक्ष फुरै है ॥ १६ ॥ ऐ ऐ देखो दइ गतिया, वतिया कछु ही न कही सी पर है। रंक कुराज (उ) रु राउ को रक, पलक्क में ऐसी हलक करै है। एक विचित्र ही 'चित्र बनावत, एक कु भाजत एक घरै हैं । वात धरम्मसी वाही के हाथ, है टार्यो न काहु को ईस टर है ॥ १७ ॥ to
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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