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________________ शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह २७७ आवि जिहां वावि जल अमृत जेम ए, स्नान पाने वपू निरमल हेम ए ॥ २४ ।। जय विजया अपराजि जयंतिया, मध्य कंचणगडै प्रोलि वसंतिया । तुंबुर पुरुप पट्टग अर्चिमाल ए, रजत गढ प्रोलि ना एह रखपाल ए ॥२५॥ पहिल त्रिगढौ न हुआ जिण पुर ग्राम ए, देव महर्धिक रचैं तिण ठाम ए। करण वार वार कारण नहिं कोइ ए, ___आठ प्रातिहारज ते सही होइ ए ॥ २६ ।। जिन समवशरण नी ऋद्धि दीठी जीए, तेह धन धन्न अवतार पायो तिए। - पास अरदास सुणि वंछित पूरज्यो, हिव मुझ ताहरौ शुद्ध दरसण हुज्यो ॥२७॥ ॥ कलश ॥ इम समवशरण रिद्धि वरण सहू जिणवर सारिखी । सरदहै ते लहै शुद्ध समकित परम जिनध्रम पारिखी ।। प्रकरण सिद्धंत गुरु परंपर सुणी सहु अधिकार ए । संस्तव्यो पास जिणद पाठक धरमवरधन धार ए ॥२८॥
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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