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________________ २७३ - धर्मवद्धन ग्रन्थावली प्रदिक्षणा रूप थी अगनि कूणे करी, __गणधर साधवी तिम विमाणी सुरी। ज्योतिपी भुवणिनी वितरी त्री पण, नैऋत कूण जिण वाणि ऊभी सुणे ।। १६ । त्रिहुं तणा पति वायु कूण में जाण ए, सुर विमाणीय नर नारि ईसाण ए । वार परिपद मद मच्छर छोड़ ए, भूख तृप वीसरे सुणे कर जोड़ ए ॥ २० ॥ पूठि भामंडल तेज परकास ए, जोयण सहस धज ऊंच आकास ए। झलहले तेज धर्मचक्र गगने सही, महक सहु वारण धूप धाणा मही ॥ २१ ॥ वाहण वहिल सहि धरिय पहिलै गढे, होइ - पगचार नर नारि ऊंचा चढे । जिण तणी वाणि सुणि जीव तिरजंच ए, वैर तजि बीय गढ रहै सुख संच ए ॥ २२ ॥ पुण्यवंत पुरुप ते परिपद वारमै, सुणे जिण वाणि धन गिणय अवतार मै । चौवहि देव जिणदेव सेवा रसे, मणिमयी माहिली प्रोलि माहे वसै ॥२३ ।। चिहुं दिसि वाटुली वावि चौ जाणिय, विदिसि चौकूणी दोड दोइ वाखाणीर्य ।
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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