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________________ २५४ धर्मवद्धन ग्रन्थावली साहमीवच्छल साचवे, साधुनी करे सेव । आखड़ी वत पचखाण री, टाले नहीं टेव ।। श्रा, ॥१४॥ कूडा कथन रखे करी, सुस कूड़ी साख । __ थापण मोसौ मत करे, रिद्धि पारकी राख । श्रा. ॥१५॥ सावू साजी सहित ना, विप ना व्यापार। पाप विणज टाले परां, जिम होइ अँवार ।। श्रा. ॥१६॥ व्यापार शुद्ध करे वली, निम होइ प्रतीति । ___ पाप किया ते पडिकमे, अतिचार अनीति | था. ॥१॥ पांच तिथे टाले परो, अधिको आरम्भ । परहरे निन्दा पारकी, दिल न धरे दम्भ ।। श्रा. ॥१८॥ पोता री परणी प्रिया, राखे तिण सुरंग । शील धरे न करे सही, पर स्त्री प्रसग ॥ श्रा ॥१॥ जूवा प्रमुख कह्याजिके, साते कुव्यसन्न । सेवें न कोई सर्वथा, धरमी ते धन्न ॥ श्रा. ॥ २० ॥ पोसा परवे पाखिए, करे मन नैं कोड़ि । गुण गाए गुरुदेव ना, हरखे होडा होडि || श्रा. ॥२॥ सूड़ने दाणवइ गास जो, खड़ी क्षेत्र अखंड। उपदेश न दिये एहवा, दोप अनरथ ढड ॥ श्रा ॥२२॥ रात्रिभोजन नादर, इण दोप अपार । सेजे रात्रि सूवता, वलि कर चौविहार ॥ श्रा. ॥३॥ जो सूता कोइ जीवन, जोखो हुय जाय । तौ पचखाण सहु तणी, करे मन वच काय ।। श्रा.॥२४॥ -सहु श्रावक नित साचव, एतो कुल आचार। . धन ते कहै श्री धर्मशी, सुख लहै श्रीकार ॥ श्रा.२५॥
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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