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________________ श्रावक करणी २५३ पछिली रात प्रभात रौ, तजि अंघ अज्ञान । वे घड़ी एकात वैसि नै, ध्यावे धर्म ध्यान ।।३॥ श्रा ।। उतम कुल हुं उपनौ, पूरवलैं पुन्न । जतन करी जिन धर्म ने, राखें जेम रतन्न ॥४|| श्रा.॥ धुरि समकित साचौ धरै, नित गुण नवकार.। आदर पर उपकार सुं, बरतें विवहार ॥॥ श्रा.॥ करि न सके तोही कर, मनोरथ मन माहि।। वत वार धार वली, चारित नी चाहि ॥६॥ श्रा देव जुहारी दिन उदय, गुरु वदि सुज्ञान । सांभलि उपदेश सूत्रनौ, गिणे धन दिन ज्ञान ॥णा श्रा.॥ वादि कहै. देज्यो वलि, भात पाणी लाभ। भोजन कीजै भाव सौं, पात्रा पडिलाभ ॥ श्रा.॥८॥ पच्चखाण पूगे पारता, कहे तीन नौकार।। घर सारू थोड़ो घणौ, करे पुण्य प्रकार ॥ श्रा.॥६॥ ___ पाणी छाणे, प्रेम सुं, दिन मे दोई वार । ___ जीवाणी पण जतन सु, राखें सुविचार ॥ श्रा. ॥१०॥ पीसण खाडण लीपणे, राधण रधाण । छै कूटो छःकायनौ, जयणा करे जाण ॥ श्रा. ॥११॥ ___ चक्की चूल्है चद्र या, तिम घृत नै तेल । ___ ऊघाड़ा राख्या ईया, वधै पापनी वेल ॥ श्रा. ॥१२॥ ____ बावीस अभक्ष जे वोलिया, तजें परहा तेह । चवदे नेम चितारता, इण लाभ अछेह ॥ श्रा.॥१३॥
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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