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________________ २३४ धर्मवडून ग्रन्थावली सेवै कुण सुर अवर कु , परिहरि प्रभु पाया। आलिंगे कुण आक कुं, छंडि सुरतरु छाया ।२।। मन शुद्धे जपतां मिले, मन वंछित माया। तेणि धर्मवर्द्धन धर्यो, गुण जिण ही गाया ॥३॥ ( 8 ) कुशल करो जिन कुशल जी दुख दूर निवारौ। द्यौ मन वछित दिन दिनै, विनती अवधारौ ॥कु० १।। तो समरथ साहिब छतें, दास दीन तुम्हारौ। शोभा न वधै स्यामीया, एह वात विचारौ ॥२॥ भेट्या में हिव तुम्ह भणी, थयौ सफल जमारौ। धर्मवर्द्धन कहै माहरा, मन वछित सारो ॥३॥ श्रीजिनचन्दसूरि गीत जाति-सपखरो आज खरै उदै मुदै सारा गच्छा माहि साहि पातिसाहि मे सराह वाह वाह । जाग्यौ जैन चंद सागी, सोभागी रागी जैन धर्म, वैरागी पुण्याइ जागी अधिक उछाह ॥१॥ रूडा रुडा उपदेश दे दे वड़ा वड़ा भूप कीधा, धम्म रूप, खड़ा तडा सैवै पाय ।
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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