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________________ औपदेशिक पद मन उद्धत इन्दिय सु मिलकै, घूरि करें तप धनकु ं । यह चचल शुभ क्रिया उड़ावे, ज्यु ं वायु मिली घनकु |कि० ||२|| मन जीते विन सवही निःफल तुस वोए तजि कनकु । मन थिर कु धर्म सीख बतावर, शिष्यजनकु । कि० ||३|| सुगरु कहै ( २६ ) राम - धन्याश्री ( आयो २ री समरता दादौ आयो ) ६३ कीज कीजै री, मन की शुद्धि इण विध कीजे । आलस तजि भजि समतारसकु, विपयारस विरमीजैरी |०||१|| राग नै द्वेप दुहुं खल कैं बल, मन कसमल मल भीजे दे उपदेश दुहुं दुस्मन को, ताथइ संग तजीजैरी । म० ॥ २ ॥ शुद्धातम कइ ध्यान समाधि हि, परम सुधारस पीजे । 1 श्रीधर्मसी कहै थिर चित कारण, I कारिज अलख लखीजै री | म० ॥३॥ ( २७ ) धन्याश्री धर मन धर्म को ध्यान सदाइ । नरम हृदय करि नरम विषय मे, करम करम दुखदाई |० ||१|| धरम थी गरम क्रोध के घर में, पर मत परम ते लाइ । परमातम सुधि परमपुरष भजि, हर म तु हरम पराइ | ध०||२|| चरम की दृष्टि विचर मत जीउरा, भरम रे मत भाइ । सरम वधारण सरम को कारण, धरमज धरमसी ध्याइ |०||३||
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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