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________________ धर्मवद्धन ग्रन्थावली ( १८ ) राग-गौडी कछु कही जात नहीं गति मन की। पल पल होत नई नइ परणति, घटना सध्या घनकी । क०।१।। अगम अथग मग तु अवगाहत, पवन के धज प्रवहण की। विधि विधि वध कितेही वाधत, ज्यु खलता खल जनकी ।क०२) कबहु विकसत फुनि कमलावत, उपमा है उपवन की । कहै धर्मसीह इन्है वश कीन्हे, तिसना नहीं तन धन की का। ( १६ ) राग--सामेरी दुनियां मा कलयुग की गति देखो। किह पाई काई अधिकाई, उणको करेय अदेखो। १ । दु । अनुचित ठौरें खरच अलेखें, लेत सुकृत में लेखो । माननि कह्यो साच करि मान्हो, घर पित मात सुघेखो ।।दु। करि बहु प्यार पढाइ कियो है, सुविज्ञानी सुविसेषो। कहे धर्मसीह करे ताही सु, पीछी फेरि परेखो । ३ । दु । • राग-- सामेरो मन मृग तुतन वन मे मातौ। केलि करे चरै इच्छाचारी, जाणे नही दिन जातो । मन ! १ । माया रूप महा मृग त्रिसना, तिण में धावे तातो। आखर पूरी होत न इच्छा, तो भी नहीं पछतातो । मन । २
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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