SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 427
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * चौबीस तीर्थक्कर पुराण * २५७ बाद उसने स्पष्ट स्वरमें कहा । “ऐ देव ! जाओ, खुशीसे जाओ, अपनी सेवासे संसारका कल्याण करो, अब मैं आपको पहिचान सकी, आप मनुष्य नहीं-देव हैं । मैं आपके जन्मसे धन्य हुई । अब न आप मेरे पुत्र हैं और न मैं आपकी मां। किन्तु आप एक आराध्य देव हैं और मैं हूं आपकी एक क्षुद्र सेविका । मेरा पुत्र मोह बिलकुल दूर हो गया है। ___माताके उक्त वचनोंसे महावीर स्वामीके विरुद्ध हृदयको और भी अधिक आलम्ब मिल गया। उन्होंने स्थिर चित्त होकर संसारकी परिस्थितिका विचार किया और बनमें जाकर दीक्षा लेनेका दृढ़ निश्चय कर लिया उसी समय पीताम्बर पहिने हुए लौकान्तिक देवोंने आकर उनकी स्तुति की और दीक्षा धारण करनेके विचारोंका समर्थन किया। अपना कार्य पूराकर लौकान्तिक देव अपने स्थानोंपर वापिस चले गये। उनके जाते ही असंख्य देव राशि जय जय घोषणा करती हुई आकाश मार्गसे कुण्डनपुर आई। वहां उन्होंने भगवान महावीरका दीक्षाभिषेक किया तथा अनेक सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहिनाये । भगवान् भी देव निर्मित चन्द्रप्रभा पालकीपर सवार होकर षण्डवनमें गये और वहां अगहन वदी दशमीके दिन हस्त नक्षत्र में संध्याके सकय 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' कहकर वस्त्राभूषण उतारकर फेंक दिये। पंचमुष्टियोंसे केश उखाड़ डाले। इस तरह वाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहका त्यागकर आत्मध्यानमें लीन हो गये । विशुद्धिके बढ़नेसे उन्हें उसी समय मनः पर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया। दीक्षा कल्याणकका उत्प्तव समासकर देव लोग अपने-अपने स्थानोंपर चले गये। पारणाके दिन भगवान् महावीरने आहारके लिये कुलग्राम नामक नगरीमें प्रवेश किया। वहां उन्हें कुल भूपालने भक्ति पूर्वक आहार दिया । पात्र दानसे प्रभावित होकर देवोंने कुल भूपालके घरपर पञ्चाश्चर्य प्रकट किये। वहांसे लौटकर मुनिराज महावीर वनमें पहुंचे और आत्मध्यानमें लीन होगये । दीक्षा के बाद उन्होंने मौनव्रत लेलिया था। इस लिये बिना किसीसे कुछ कहे हुए ही वे आर्य देशोंमें बिहार करते थे। एक दिन वे विहार करते हुए भगवान महावीर उज्जयिनीके अति मुक्तक ३४
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy