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________________ ३८ * चबीस तीथकर पुराण * भवन बने हुये थे जिनकी ऊंची शिखरे आकाशके अनन्तस्थलको भेदती हुई आगे चली गई थीं और कहीं निर्वाध स्थानोंमें विस्ततृत विद्यालय बनाये गये थे। जिनकी दीवालों पर कई प्रकारके शिक्षाप्रद चित्र टंगे हुये थे। कविवर अर्हद्दासने ठीक लिखा है कि जिसके बनाने में इन्द्र सूत्रधार हो और देव लोग स्वयं कार्य करने वाले हों उस अयोध्या नगरीका वर्णन कहांतक किया जा सकता है ? सचमुच उन नवनिर्मित अयोध्याके सामने इन्द्रकी अमरावती बहुत ही फीकी मालूम होती थी। किसी दिन शुभ मुहुर्तमें सौधर्म स्वर्गके इन्द्रने सब देवोंके साथ आकर उस नवीन नगरीमें महाराज नाभिराज और मरु देवीका राज्याभिषेक कर उन्हें राजभवनमें ठहराया। उसी दिन सब अयोध्यावासियोंका भी नवीन अयोध्या में प्रवेश कराया जिससे उसकी आभा बहुत ही विचित्र हो गई थी। इसके बाद वे देव लोग कई तरहके कौतुक दिखलाकर अपने २ स्थानोंपर चले गए। जबतक मनुष्य भोग लालसाओंमें लीन रहते हैं तबतक उनके हृदयमें धर्मकी वासना दृढ़ नहीं होने पाती पर जैसे जैसे भोग लालसाएं घटती जाती हैं वैसे ही उनमें धर्मकी वासना दृढ़ होती जाती है । इस भारत वसुन्धरापर जबसे कर्म युगका प्रारम्भ हुआ तबसे लोगोंके हृदय भोग लालसाओंसे बहुत कुछ विरक्त हो चुके थे इसलिये वह समय उनके हृदयोंमें धर्मका बीज वपन करनेके लिये सर्वथा योग्य था। उस समय संसारका ऐसे देवदूतकी आवश्यता थी जो सृष्टिके विशृङ्खल अव्यवस्थित लोगोंको शृङ्खलाबद्ध व्यवस्थित बनावे, उन्हें कर्तव्यका ज्ञान करावे और उनके सुकोमल हृदय क्षेत्रोंमें धर्म कल्प वृक्ष के बीज वपन करे। वह महान कार्य किसी साधारण मनुष्यसे नहीं हो सकता था उसके लिये तो किसी ऐसे महात्माकी आवश्यकता थी जिसका व्यक्तित्व बहुत ही चढ़ा बढ़ा हो। जिसका हृदय अत्यन्त निर्मल और उदार हो । उस समय बज्रनाभि चक्रवर्तीका जीव जोकि सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र पदपर आसीन था, इस महान कार्यके लिये उद्यत हुआ। देवताओंने उसका सहर्ष अभिवादन किया। यद्यपि उसे अभी भारत भूपर आनेके लिये कुछ समय बाकी था तथापि उसके पुण्य परमाणु सब ओर फैल गये थे। सबसे पहले
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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