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________________ * चौबीस तर्थक्कर पुराण * २०७ सुख होता है वह अन्य पदार्थोके समागमसे नहीं होता। आभरण आदि देकर उन्होंने वनमालीको विदा किया और आप इष्ट परिवारके साथ पूजनकी सामग्री लेकर मुनिराज अनन्त वीर्यकी वन्दनाके लिये गये। वनमें पहुंचकर राजा हरिवर्माने छत्र चमर आदि राजाओंके चिन्ह दूरसे ही अलग कर दिये और शिष्यकी तरह विनीत होकर मुनिराजके पास पहुंचे। अष्टाङ्ग नमस्कार कर हरिवर्मा, मुनिराजके समीप ही जमीनपर बैठ गये। अनन्तवीर्यने 'धर्म वृद्धिरस्तु' करते हुए राजाके नमस्कारका प्रत्युत्तर दिया। और फिर स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, आदि सात भङ्गोंको लेकर जीव अजीव आदि तत्वों का स्पष्ट विवेचन किया। मुनिराजके व्याख्यानसे महाराज हरि वर्माको आत्म बोध हो गया। उन्होंने उसी समय अपनी आत्माको पर पदार्थों से भिन्न अनुभव किया और राग द्वेषको दूर कर उसे सुविशुद्ध' बनानेका सुदृढ़ निश्चय कर लिया। घर आकर उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्रको राज्य दिया और फिर बनमें जाकर अनेक राजाओं के साथ उन्हीं अनन्त वीर्य मुनिराजके पास जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। गुरुके पास रह कर उन्होंने ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त किया तथा दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनाओं का चिन्तवन कर तीर्थंकर प्रकृतिका वन्ध किया। इस तरह बहुत दिनतक कठिन तपस्या करके आयुके अन्तमें सल्लेखना विधिसे शरीर त्याग किया जिससे चौदहवें प्राणतं स्वर्गमें इन्द्र हुए। वहांपर उनकी बीस सागरकी आयु थी, शुक्ल लेश्या थी, साढ़े तीन हाथ ऊंचा शरीर था। वीस पक्षवाद उच्छ्वास क्रिया • और बीस हजार वर्ष वाद आहारकी इच्छा होती थी। वे वहां अपने सहजात अवधिज्ञानसे पांचवें नरकतककी बात जान लेते थे। उनके हजारों सुन्दरी स्त्रियां थीं पर उनके साथ कायिक प्रवीचार नहीं होता था। कषायोंकी मन्दता होनेके कारण मानसिक संकल्प मात्रसे ही उन दम्पतियोंकी कामेच्छा शान्त हो जाती थी। यही इन्द्र आगेके भवमें भगवान् मुनिसुव्रतनाथ होंगे। कहाँ ? सो सुनिये । [२] वर्तमान परिचय इसी भरतक्षेत्रके मगध ( विहार ) प्रांतमें एक राजगृह नामका नगर है। DODAR
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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