SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११३ * चौवीस तीर्थकर पुराण * - - - - सोलह स्वप्न देखे और उसी समय अपने मुखकमलमें प्रवेश करता हुआ एक गन्धसिन्धुर -उत्तम हाथी देखा। उसी समय उक्त इन्द्रने स्वर्गवसुन्धरासे मोह छोड़कर उसके गर्भ में प्रवेश किया सवेरा होते ही उसने प्राणनाथ कृतधर्मासे स्वप्नोंका फल पूछा तब उन्होंने कहा कि आज तुम्हारे गर्भमें किसी तीर्थकर पालकने अवतरण किया है । यह रत्नोंकी वर्षा और ये सोलह स्वप्न उसीकी विभूति पतला रहे हैं । इधर महाराज कृतवर्मा रानी जयश्यामाके लिये स्वप्नों का मधुर फल सुनाकर आनन्द पहुंचा रहे थे उधर देवोंके आसन कम्पापमान हुए जिससे उन्होंने भगवान विमलनाथके गर्भावतारका निश्चय कर लिया और समरत परिवारके साथ आकर कम्पिलापुरीमें खूब उत्सव किया। अच्छे अच्छे वस्त्राभूपणोंसे राज दम्पतीका सत्कार किया। जैसे जैसे महारानीका गर्भ बढ़ता जाता था। वैसे वैसे समस्त बन्धु बान्धवोंका हर्ष बढ़ता जाता था । नित्य प्रति होनेवाले अच्छे अच्छे शकुन सभी लोगों को हर्षित करते थे । जप गर्भके दिन पूर्ण हो गये तप महादेवीने माघ शुक्ल चतुर्दशीके दिन उत्तरा भाद्रपद नक्षत्रमें मतिश्रुत, अवधि ज्ञानधारी पुत्र रत्नको उत्पन्न किया। उसी समय इन्द्रादि देवोंने आकर जन्म कल्याणकका उत्सव किया और अनेक प्रकारसे बाल तीर्थङ्करकी स्तुति कर उनका विमलप्रभ नाम रक्खा। भगवान विमलप्रभका राज परिवारमें बड़ी प्यारसे लालन पालन होने लगा। वे अपनी थाल्योचित चेष्टाओं से माता पिताको अत्यन्त हर्षित करते थे। वासुपूज्य स्वामीके मोक्ष जानेके तीस सागर बाद भगवान विमलप्रभ विमलनाथ हुए थे । इनके उत्पन्न होनेके पहले एक पल्यतक भारतवर्ष में धर्मका विच्छेद हो गया था। उनकी आयु साठ लाख वर्षकी थी। शरीरकी ऊंचाई साठ धनुष और रङ्ग सुवर्णके समान पीला था। जब इनके कुमारकाल के पन्द्रह लाख वर्ष बीत गये तब इन्हें राज्यकी प्राप्ति हुई। राज्य पाकर इन्होंने ऐसे ढङ्गसे प्रजाका पालन किया जिससे इनका निर्मल यश समस्त संसारमें फैल गया था। महाराज कृतवर्माने अनेक सुन्दरी कन्याओंके साथ उनका विवाह कराया था। जिसके साथ तरह तरहके कौतुक करते हुए वे सुखसे समय विताते थे । बीच बीचमें इन्द्र आदि देवता विनोद गोष्ठियोंके द्वारा -
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy