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________________ * चौबीस तीथकर पुराण * १६१ Homoem - RAM REL ऋतुएं अपनी अपनी शोभा प्रकट कर रही थीं। महाराज पनसेनने विनत मूर्धा होकर केवलीके चरणोंमें प्रणाम किया और उपदेश सुननेकी इच्छासे वहीं यथोचित स्थानपर बैठ गये। केवली भगवानने दिव्य ध्वनिके द्वारा सात तत्वों का व्याख्यान किया और चतुर्गति रूप संसारके दुःलोंका वर्णन किया। संसार का दुःखमय वातावरण सुनकर महाराज पद्मसेनका हृदय एकदम विभीत हो गया। उसी समय उनके हृदय में वैराग्य सागरफी तरल तरंगे उठने लगी। जब केवली महाराजकी दिव्य ध्वनिसे उन्हें पता चला कि अव मेरे केवल दो भव ही बाकी रह गये हैं तब तो उनके आनन्दका ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने घर आकर पदम नामक पुत्रके लिये राज्य दिया और फिर उनमें जाकर उन्हीं केवलीके निकट जिन दीक्षा ले ली। उनके साथ रहकर उन्हींसे ग्यारह अझोंका अध्ययन किया और दर्शन विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं का चिन्त. वन कर तीर्थकर नामक पुण्य प्रकृतिका बन्ध किया जिससे आयुके अन्तमें संन्यासपूर्वक शरीर छोड़कर बारहवें सहस्रार स्वर्गमें सहस्रार नामके इन्द्र हुए। वहां उनकी आयु अठारह सागर की थी, एक धनुष-चार हाथ ऊंचा शरीर था, जघन्य शुक्ल लेश्या थी, वे वहां अठारह हजार वर्ष बाद आहार लेते और नौ माह बाद श्वासोच्छ्यास प्रक्षण करते थे। वहां अनेक देवियां अपने अतुल्य रूपसे उनके लोचनोंको प्रसन्न किया करती थीं। उन्हें जन्मसे ही अवधिज्ञान था जिससे वे चौथे नरक तकको वार्ता जान लेते थे। वे अपनी दिव्य शक्तिसे सब जगह घूम धूमकर प्रकृतिकी अद्भुत विभूति देखते थे। यही सहस्रारेन्द्र आगे भवमें भगवान विमलनाथ होंगे। [२] पूर्वभव परिचय भरत क्षेत्रकी कम्पिला नगरीमें इक्ष्वाकु वंशीय राजा कृतवर्मा राज्य करते थे उनकी महारानीका नाम जयश्यामा था। पाठक जिस सहस्रारेन्द्रसे परिचित हैं उसकी आयु जब सिर्फ छह माहकी बाकी रह गई तभीसे महाराज कृतवर्मा के घर पर देवों ने रत्नोंकी वर्षा करनी शुरू कर दी। महादेवी जयश्यामाने ज्येष्ठ कृष्ण दशमीके दिन उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में रात्रिके पिछले भागमें NDI I
SR No.010703
Book TitleChobisi Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherDulichand Parivar
Publication Year1995
Total Pages435
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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