SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Pattitutattituttttttaistt.ttituttitutiate जैनग्रन्थरताकरे ९३।। atatutitutitukuteketrkut.tt.kuttatrkut.tuktak-t-tt.titutekatutientatut.k.kuttekt.ketin तत्त्वदृष्टि जो देखिये, सत्यारथकी भांति । ज्यों जाको परिग्रह धरै, यो ताको उपशांति ॥ परन्तुसंसारी जानें नहीं, सत्यारथकी बात । परिग्रहसों माने विभव, परिग्रहविन उतपात ।। इस प्रकार विचार करनेपर भी दो वर्ष तक कविवरके मोहका 7 उपशान्त नहीं हुआ। संवत् १६९८ में जब कि यह अर्द्ध कथानक रचा गया है, कुछ मोह उपशान्त हुआ, ऐसा कहकर हमारे चरित्र नायकने कथानकके पूर्वार्द को पूर्ण किया है। जीवनचरित्रके अन्तमें नायकके गुणदोपोंकी आलोचना करने की प्रथा है। विना आलोचनाके चरित्र एक प्रकार अधरा ही कहलाता है । अतएव कविवरके गुणदोषोंकी आलोचना करना अभीष्ट है । जीवनचरित्रके लेखकोंको इस विषयमें बड़ा परिश्रम करना । पडता है, परन्तु तौ मी यथार्थ लिखने में असमर्थ होते हैं। और अनुमानादिके भरोसे जो थोड़ा बहुत लिखते भी हैं, वह नायकके विशेषकर बाह्यचरित्रोंसे सम्बन्ध रखता है । ऐसी दशामें पाठक प्रायः नायकके अन्तर्चरित्रोंसे अनभिज्ञ ही रहते हैं। परन्तु बड़े हर्षकी बात है कि हमारे चरित्रनायक स्वयं अपने चरित्रोंको लिखके रख गये हैं, इस लिये हमको इस विषयमें विशेष प्रयास तथा चिन्ता करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है । उन्हींके अक्षरोंको हम यहां लिखकर अर्द्धकथानकके चरित्रको पूर्ण करते हैं। __ अव बनारसीके कहों, वर्तमान गुणदोप। विद्यमान पुर आगरे । सुखसों रहै सजोप ॥ Patekatatatutstakrt.tatuteketstattattats.kotkazstatistatute totket taketart tet utt H
SR No.010701
Book TitleBanarasivilas aur Kavi Banarsi ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy