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________________ WwA yakarature ६६ कविवरवनारसीदासः।। २ अहाहा! यह अन्तका वनितावदन-विनिर्गत-पद कैसा मनोहर है। ऐसे शब्द भाग्यवान् पुरुषोंके अतिरिक्त अन्यपुरुषोंको सुनना नसीव नहीं होते । उस वन्दनीय स्त्रीको तृप्ति इतनेहीमें, नहीं हुई, उसने एकान्त पाकर अपनी माताकी गोदमें सिर रख दिया और फूट २ के रोने लगी। पतिकी आर्थिक अवस्थाके शोकस उसका हृदय कितना विद्ध हुआ है, सो माताको खोलके दिखलान हि लगी । बोली-जननी! मेरी लज्जा अब तेरे हाथ है। यदि तू साहाय्य नहीं करेगी, तो प्राणपति-सर्वस्व न जाने क्या करेंगे। वे इतने लजालु हैं कि, अपने विषय में किसीसे याच्या तो दूर रहै, एक अक्षर मी नहीं कह सक्ते । मुझसे न जाने उन्होंने कैसे कह दिया है। उनका चित्त बहुत डांवाडोल है। वे न तो धर जाना चाहते हैं और न यहां रहना चाहते हैं, परन्तुयदि तू कूछ आर्थिक सहायता करेगी, तो व्यवसाय अवश्य ही करने लगेंगे।" (धन्य पति ते!), पुत्रीके हृदयदुःख को जानकर माताने आश्वासन देते हुए आंसू पोंछकर कहा, "बेटी ! उदास-निराश मत हो । मेरे पास ये दोसौ रुपये हैं, सो तुझे देती हूं, इससे वे आगरेको जाकर व्यापार कर सकेंगे (धन्य जननी 1) Htt.titutet-tituteketstxxsixtutstatutetrint.skettrinakutrintukatutekutskrkuteknarkikskrit पुनः रात्रि हुई । दम्पति समागम हुआ । पति परायणा साथ्वीने अपने कोकिल-कण्ठ-विनिन्दित-खरसे लालायितनेत्रोंद्वारा पतिॐ की मुखच्छनि अवलोकन करते हुए कहा "नाथ! मैं समझती हूँ कि आप जौनपुर जानेके विचारमें नहीं होंगे, और यथार्थमें वहां जाना इस दशामें अच्छा भी नहीं है । मेरे कहनेसे आप आगरेको एक बार फिर जाइये! एक बार फिर उद्योग कीजिये ! अबकी बार ॐ अवश्य ही आप सफलमनोरथ होंगे। मैं दोसौ रुपया और भी आपको है।
SR No.010701
Book TitleBanarasivilas aur Kavi Banarsi ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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