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________________ *xit kkkkkantitatutika १३८ कविवरवनारसीदासः । शानी संपति विपतिमें, रहै एकसी भांति । ज्यों रवि ऊगत आथवत, तजै न राती कांति॥१३०॥ खरगसेननी शाहजादपुरमें १० महीने रहकर प्रयागको जिसे : * उस समय इलाहोवास भी कहते थे और जो त्रिवेणीके तटपर बसा है, व्यापारके लिये गये । परन्तु कुटुम्बको शाहजादपुरमें ही छोड गये । उस समय अकवरका शाहजादा (जहांगीर) प्रयाग में ही रहता था। पिताके चले जानेपर इधर बनारसीदासने कौड़ियां बटे से खरीदकर बेचनेका व्यापार सीखना प्रारंभ किया। प्रतिदिन टक्के दो टके कमाना और चार छह दिन पीछे अपनी दादीके सम्मुख लाकर रखना, ऐसा नियम किया । कौडियोंकी कमाईको भोली दादी अपने पौत्रकी प्रथम कमाई समझकर उसकी शीरानी और निकृती लाकर सतीके नामसे बाँट देती थी। दादीके भोलेपन विषयमें कविवरने बहुत कुछ लिखा है। उसका सारांश यह है कि "हमारी दादीके मोह और मिथ्यात्वका ठिकाना नहीं था, वे समझती थीं, कि यह बालक (बनारसी) सती जी की कृपासे ही हुआ है। और इसी विचारमें रात्रि दिवस मन रहती थीं । रात्रिको नित्य नये २ स्वम देखती थीं, और उन्हें यथार्थ समझक तदनुसार आचरण भी करती थीं।" । तीन महीनेके पीछे खरगसेनजीका पत्र आया कि, सबको लेकर फतहपुर चले आओ। ऐसा ही हुआ, दो डोली किरायसे करके और सब सामान लेके बनारसी पिताकी आज्ञानुसार फतहपुर आ गये । फतहपुरमें दिगम्बरी ओसवाल जैनि १ इलाहावाद। ल लललल Protkexxx.krtitiz.kkk.xxx.ske...kutarketikot.kot.kum.katukonkazetotuxut.ttitutet- t
SR No.010701
Book TitleBanarasivilas aur Kavi Banarsi ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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