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________________ Htri-knittitutet-titutu.titit-it-i-t.ttrkatrtattitutet.tiketikot.tot.tot.tt.st-total Frtitattituti-tituti24tistatuteristirit नग्रन्थरनाकरे ३७ rry ram rrrrram rurn .-..-- .. जो समयके कष्टसे कातर होकर स्वर्गमन दीन अनायोंकी नाई रोदन : करन लंग। उन्हें स्त्री पुत्र कन्या और विपुलसम्पत्तिकी रक्षा असंभव प्रतीति होन लगी । पान्नु उदय अन्छा था। उस नगा करमचन्द नामक माहुरवणिक था । वह एक परगसजन पुरुषच खरगसनको पहिचानका था। वह इनकी विपत्तिकी टोह पाकर दौडा हुआ आया, और प्रार्थना करके खरगसेनको सपरिवार अपने गृह ले गया। करमचन्दने बड़े आग्रहसे अपना धनधान्यपूर्णगृह खरगसेनको मोर दिया और आए दूनर गृहमें रहने लगा। खरगसेनने गृहकी धान्यादि प्रचुरसामग्री न लेक लिये बहुत प्रयत्न किये, परन्तु सञ्च मित्रक प्रेमके आगे उनके आगृहका कुछ फल नहीं हुआ । कविवर कहते हैं बन वरसै पावस समै, जिन दोनों निजभौन । ताकी महिमाकी कथा, मुखसों बरनै कौन? ॥१८॥ शाहजादपुग्में सुरगसेन सपरिवार मुसुम रहने लगे, और मित्रके अगाध प्रेमका उपभोग करने लगे। पूर्व की विपत्ति मर्यथा मूल गये । इस भूलनेपर अध्यात्म रसिया कविवरन कहा है, वह दुख दियो नवाब कुलीच । ___ यह मुख शाहजादपुर वीव ।। एकदृष्टि बहु अन्तर होय । ____ एकदृष्टि सुख दुख सम होय ॥ जो दुख देखे सो मुख लहै । सुख भुजै सोई दुख लहै। सुखमें मान में सुखी, दुसमें दुग्यमय होय । मूहपुरुषकी दृष्टिम, दीसें सुख दुग्न दोय ॥ ATTARATitatutorstutimart Truttitutnt.THExtetirtatutetotiatrint.tr
SR No.010701
Book TitleBanarasivilas aur Kavi Banarsi ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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