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________________ सुभाषिनमञ्जरी किन्तु मैं यह याचना करता हूँ कि हे जिनेन्द्र ! आप ऐसा करे जिससे कि मेरी अचल भक्ति आप मे ही बनी रहे। ऐसी भक्ति जो कि समस्त स्वर्गादिक के अभ्युदय और मोक्ष के फल को उत्पन्न करता है ।।१०।। आर्या एकापि समर्थेयं जिनभक्ति दुर्गाति निवायितुम् । पुण्यानि च पूरयितु दातुमुस्तिश्रियं कृतिनः ।।११।। अर्थ- यह जिन भक्ति अकेली ही दुगंति को दूर करने, पुण्य को पूर्ण करने और कुशल मनुष्यो को मोक्ष रूपी लक्ष्मी के प्रदान करने में समर्थ हे ॥११॥ अनुष्टुम् भवन्तमित्यभिष्टुत्य विष्टपातिगपौरुषम् । त्वय्येव भक्तिमकृशां प्रार्थये नान्यदर्यये॥१२।। अर्थ- हे भगवन । लोकोत्तर पराक्रम के धारक आपकी इस तरह स्तुति कर मैं यही चाहता हूँ कि मेरी अ'प मे ही बहुत भारी भक्ति बनी रहे, और कुछ नही चाहता हूँ ॥१२॥ हम भगवान का स्मरण किस तरह करते है ? निर्वाचो वचनाशया तृणभुजो मानुष्यजन्माशया निःस्वा भूरिधनाराया कुतनपः सत् पदेहाशया ।
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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