SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुभापितमञ्जरी खिनभक्ति मालिनी हरतु हरतु वृद्ध वार्वकं कायकान्ति दधतु दधतु दूरं मन्दतामिन्द्रियाणि । । भवतु भवतु दुःखं जायतां वा विनाशः परमिह जिननाथे भरतीरेका समास्तु ||६|| अर्थ - वृद्धि को प्राप्त हुआ बुढापा भले ही गरीर की कान्ति को नष्ट कर दे, इन्द्रियाँ भले ही अत्यन्त मन्दता को धारणा कर ले, भले ही दुख हो अथवा भले ही मरण हो परन्तु इस ससार मे जब तक हूँ तब तक जिनेन्द्र भगवान में एक मेरी भक्ति बनी रहे ।।९।। बसन्ततिलका त्वां देव नित्यमभिवन्ध कृतप्रणामो नान्यत्फलं परिमितं परिमार्गयामि । त्वय्येव भक्तिमचलां जिन से दिश त्वं या सर्वमभ्युदय मुक्तिफलं प्रस्ते ॥१०॥ अर्थ- हे देव । निरन्तर आपको वन्दना कर प्रणाम करता हुअा मैं अन्य परिमित फल की याचना नहीं करता
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy