SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुभाषितमञ्जरी माः स्वर्गकलाशयाऽमृ तभुजो निर्वाणसोख्याशया संध्यायन्ति दिवानिशं सुमनसा तद्वत्स्मरामो वयम् ॥१३॥ अर्थ- जिस प्रकार गू गेमनुष्य वचनो की प्राशा से तिर्णच मनुष्यभव की आशा से, निर्धन वहुत भारी धन की आशा से कुरूप, सुन्दर शरीर को आशा से, मनुष्य स्वर्ग की आशा से, और देव मोक्ष सुख की प्राशा से रात दिन ध्यान करते है उसी प्रकार हे भगवन् । हम अच्छे ह्रदय से आपका ध्यान करते हैं ।।१३।। जिनेन्दार्चा पञ्च शुद्धियाँ सदद्रव्यक्षेत्रमाला भाषाख्याः पन्चशुद्धयः जिनपुजाप्रतिष्ठार्थ बुधैरुक्ताः पृथक पृथक ॥१४॥ अर्थ- विद्वानो ने जिन पूजा को प्रतिष्ठा के लिये द्रव्य शुद्धि, क्षेत्रशुद्धि , कालशुद्धि, प्रतिमाशुद्धि और भावशुद्धि के भेद से पांच शुद्धियो का पृथक पृथक निरूपण किया है ।।१४।। कैसी प्रतिभा शुभ होती है निराभरणवस्त्रास्त्रविकारादोषवर्जिता । दशतालविनिर्माणा जिनार्चा शुभदा भवेत् ॥१५॥
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy