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________________ ज्ञानानन्दरत्नाकर निजनिज गतमें गत्तसव मतवारे वकवादकरें ॥ ४ ॥ कोई भवान्तर सिद्धि करें कोई जन्म एकही मानत है। अनादि कोई कहै कोई नये जीव नित आनत हैं। कोई तो स्वाधीन जीव के क्रियाकर्म फल जानत है। परमेश्वर के कोई भाधीन सर्व कति जानत है ।। ॥चौपाई॥ इत्यादिक बहु विकल्प ठाने । एक कहै सो द्वितिय न माने ।। पन आपनी अपनी ताने । अपनी पो परकी भाने । ॥दोहा॥ अपने मतमें दोष हो तापर दृधि न देय । बस्न छिवायें शक्ति भरताको पुष्ट करेंय ॥ तले अन्धेरा दीपक के रखसर्व धर्म वर्वाद करें। निन निज मतमें मत्तसब मतवारे वकवाद करें ।। ५ ॥ जो हठ छोड़ विचार करोतोगगट दृष्टि यह आताहै। सर्व मतों में कथन कुछ विरुद्ध पाया जाता है। किसी चदुत असत्य किसी में थोड़ा असत दिखाताहै। सत्य सर्वही किसी एक मैं न देखा जाता है । ॥चौपाई॥ इस से जो जो सत्य कथन है । सर्व मतों में सार मथन है । सर्च गृहण के योग्य रतन है । ताका ग्रहण उचित यवन है ! ॥दोहा॥ श्वसत सही त्यागिये ढूंढ़ दुद पहिचान । मतवारापन त्याग हो मतिवारा सुप्रधान ॥ बहुविद्या पढ़ बैल भारती हो शउ वृथा विवादकरें । निजनिज मतमें मत्तसव मतवारे बकवाद करें॥६॥ जैसे मटीले गेहुन के बहु भांति प्रथक लगिरहे है ढेर। किसीमें थोड़ी किसी में बहुत मिली मृतिकाका ना फेर !
SR No.010697
Book TitleGyanand Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Munshi
PublisherLala Bhagvandas Jain
Publication Year1902
Total Pages97
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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