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________________ ज्ञानानन्दरलाकर। इने फिर तप शूर हो करै वहीं रिपु चूर ।। सो दोनों धर्मा को छोड़ पर सेवा प्रहलाद कर। निजनिन मतमे पत्तभत्र मतवारे कराद करें ॥२॥ शुद्ध मनेन मादिनीचों ने राज्य लिया भपनेकरमें। हिन्सा मार्ग तभी से फैल गया दुनिया भर ।। धर्षय सननष्ट भये भवनो रचना है घरघर में। समें नयी है प्रथम से बड़ा मेद ज्यों गोखर में । ॥चौपाई॥ जॉन देश गत का नृप भाया । ताने पत भपना फैलाया ॥ मन्य मदों को नष्ट कराया। यही घाँ भपना ठहराया ॥ ॥दोहा॥ मति पन्दिर चोर के दीने गन्य जलाय । भपना ले गारी नदी दीने सर्व डबाय ॥ भपे परस्पर मतद्वैपी नृप क्यान भंग मर्याद करें । निननिन मवा भत्तसव मतवारे वकवाद करें |.३ ॥ इसी भांति बहुबाद परस्सर नष्ट गन्य प्राचीन करे । पक्षपात से नये मत भिन्न भिन्न फैले सगरे ॥ गरि मनमारकरी रचना तिनवकार लिखगंयमरे। प्रमाणता को पूर्व विधानों के ले नाम घरे ॥ ॥चौपाई॥ यही हेतु प्रत्यक्ष दिखाता । कयन परस्पर मेल न खाता ।। कोई कई जारचा विघाता। कोई विश्व को अनादिगाता॥ ॥ दोहा॥ कोई कई है पकी परम ना भगवान । काई कई मनन्त है पद के एक प्रधान ।। कोई जीवको नाशवान कोई नित्य गानसम्बादकरें।
SR No.010697
Book TitleGyanand Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Munshi
PublisherLala Bhagvandas Jain
Publication Year1902
Total Pages97
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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