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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः । ५९ पृथक्त्व वर्ष पृथक्त्व वर्ष वारहमुहूर्त और अन्त की तीन मार्गणाओंका काल पल्यके असंख्या - भाग है । और जघन्य काल सबका एक समय है । भावार्थ – उपशम सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल सात दिन, सूक्ष्मसांपरायका छह महीना, आहारकयोगका पृथक्त्ववर्ष, तथा आहारकमिश्रका पृथक्त्ववर्ष, वैक्रियिकमिश्रका बारह मुहूर्त, अपर्याप्त मनुष्यका पल्य के असंख्यातवें भाग, तथा सासादन सम्यक्त्व और मिश्र इन दोनोंका भी उत्कृष्ट अंतरकाल पल्के असंख्यातवें भाग है | और जघन्य काल सबका एक समय ही / अंतरमार्गणाविशेषों को दिखाते हैं । पढमुवसमसहिदाए विरदाविरदीए चोदसा दिवसा । विरदीए पण्णरसाविरहिदकालो दु बोधो ॥ १४४ ॥ प्रथमोपशमसहिताया विरताविरतेश्वतुर्दश दिवसाः । विरतेः पञ्चदश विरहितकालस्तु बोद्धव्यः ॥ १४४ ॥ अर्थ – प्रथमोपशमसम्यक्त्वसहित पंचमगुणस्थानका उत्कृष्ट विरहकाल चौदह दिन, और छट्ठे सात में गुणस्थानका उत्कृष्ट विरहकाल पंद्रह दिन समझना चाहिये । भावार्थ — उपशमसम्यक्त्व के दो भेद हैं, एक प्रथमोपशम सम्यक्त्व दूसरा द्वितीयोपशम सम्यक्त्व | चार अनन्तानुबन्धी तथा एक दर्शनमोहनीय ( मिथ्यात्व ) के, अथवा तीनों दर्शनमोहनीय और चार अनंतानुबंधी, इस प्रकार पांच या सातके उपशमसे जो हो उसको प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते हैं । और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजन और दर्शनमोहनीयत्रिकका उपशम होनेसे जो सम्यक्त्व होता है उसको द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं । इनमें से प्रथमोपशम सम्यक्त्वसहित पंचमगुणस्थानका उत्कृष्ट विरहकाल चौदह दिन, और छट्ठे सातवें गुणस्थानका पंद्रह दिन है । किन्तु जघन्य विरहकाल सर्वत्र एक समय ही है । गतिमार्गणाका प्रारम्भ करते हुए प्रथम गतिशब्दकी निरुक्ति और उसके भेदोंको गिनाते हैं गइउदयजपज्जाया चउगइगमणस्सहेउ वा हु गई । णारयतिरिक्खमाणुसदेवगइत्तिय हवे चदुधा ॥ १४५ ॥ गत्युदयजपर्यायः चतुर्गतिगमनस्य हेतुर्वा हि गतिः । नारकतिर्यग्मानुषदेवगतिरिति च भवेत् चतुर्धा ॥ १४५ ॥ अर्थ – गतिनाम कर्मके उदयसे होनेवाली जीवकी पर्यायको अथवा चारों गतियों में ग़मन करनेके कारणको गति कहते हैं । उसके चार भेद हैं, नरकगति तिर्यग्गति मनुष्यगति देवगति । For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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