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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । गतिमार्गणामें कुछ विशेष (चारों गतियोंका पृथक् २) वर्णन पांच गाथाओं द्वारा करते हैं। ण रमंति जदो णिचं दवे खेत्ते य कालभावे य । अण्णोण्णेहि य जमा तह्मा ते णारया भणिया ॥ १४६ ॥ न रमन्ते यतो नित्यं द्रव्ये क्षेत्रे च कालभावे च। अन्योन्यैश्च यस्मात्तस्मात्ते नारता भणिताः ॥ १४६ ॥ अर्थ-द्रव्य क्षेत्र काल भावमें स्वयं तथा परस्पर में प्रीतिको प्राप्त नहीं होते अतएव उनको नारत (नारकी) कहते हैं । भावार्थ-शरीर आर इन्द्रियके विषयोंमें, उत्पत्ति शयन विहार उठने बैठने आदिके स्थानमें, भोजन आदिके समयमें, अथवा और भी अनेक अवस्थाओंमें जो स्वयं अथवा परस्परमें प्रीति ( सुख ) को प्राप्त न हों उनको नारत कहते हैं । इस गाथामें जो च शब्द पड़ा है उससे इसका दूसरा भी निरुक्तिसिद्ध अर्थ समझना चाहिये । अर्थात् जो नरकगतिनाम कर्म के उदयसे हों उनको, अथवा ( नरान् ) मनुष्योंको ( कायन्ति ) क्लेश पहुंचावें उनको नारक कहते हैं। क्योंकि नीचे सातो ही भूमियों में रहनेवाले नारकी निरन्तर ही खाभाविक शारीरिक मानसिक आगन्तुक तथा क्षेत्रजन्य इन पांच प्रकारके दुःखोंसे दुःखी रहते हैं । तिर्यग्गतिका खरूप बताते हैं। तिरियंति कुडिलभावं सुविउलसण्णा णिगिट्ठिमण्णाणा । अचंतपाबबहुला तह्मा तेरिच्छया भणिया ॥ १४७ ॥ तिरोञ्चन्ति कुटिलभावं सुविवृतसंज्ञा निकृष्टमज्ञानाः । अत्यन्तपापबहुलास्तस्मात्तैरश्वका भणिताः ॥ १४७ ॥ अर्थ-जो मन वचन कायकी कुटिलताको प्राप्त हों, अथवा जिनकी आहारादि विषयक संज्ञा दूसरे मनुष्योंको अच्छीतरह प्रकट हो, और जो निकृष्ट अज्ञानी हों, तथा जिनमें अत्यन्त पापका बाहुल्य पाया जाय उनको तिर्यच कहते हैं । भावार्थ-जिनमें कुटिलताकी प्रधानता हो; क्योंकि प्रायःकरके सबही तिर्यंच जो उनके मनमें होता है उसको वचनद्वारा नहीं कहते; क्योंकि उनके उसप्रकारकी वचनशक्ति ही नहीं है, और जो वचनसे कहते हैं उसको कायसे नहीं करते, तथा जिनकी आहारादिसंज्ञा प्रकट हो, और श्रुतका अभ्यास तथा शुभोपयोगादिके न करसकनेसे जिनमें अत्यन्त अज्ञानता पाई जाय । तथा मनुष्यकी तरह महाव्रतादिकको धारण न करसकने और दर्शनविशुद्धि आदिके न होसकनेसे जिनमें अत्यन्त पापका बाहुल्य पाया जाय उनको तिर्यंच कहते हैं। मनुष्यगतिका स्वरूप बताते हैं। मण्णंति जदो णिचं मणेण णिउणा मणुक्कडा जह्मा । मण्णुब्भवा य सत्वे तह्मा ते माणुसा भणिदा ॥ १४८ । For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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