SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । इसप्रकार मार्गणानिरूपणकी प्रतिज्ञा करके प्रथम उसका ( मार्गणा ) निरुक्तिपूर्वक लक्षण कहते हैं। जाहि व जासु व जीवा मग्गिजंते जहा तहा दिट्टा । ताओ चोदस जाणे सुयणाणे मग्गणा होति ॥ १४ ॥ याभिर्वा यासु वा जीवा मृग्यन्ते यथा तथा दृष्टाः । ताश्चतुर्दश जानीहि श्रुतज्ञाने मार्गणा भवन्ति ॥ १४० ॥ अर्थ-जिसप्रकारसे प्रवचनमें देखेगये हों उसही प्रकारसे जीवादि पदार्थोंका जिन भावोंके द्वारा अथवा जिन पर्यायोंमें विचार किया जाय वे ही मार्गणा हैं । ऐसा समझना चाहिये । उनके चौदह भेद हैं। चोदह मार्गणाओंके नाम बताते हैं । गइइंदियेसु काये जोगे वेदे कसायणाणे य । संजमदंसणलेस्साभवियासम्मत्तसण्णिआहारे ॥ १४१ ॥ गतीन्द्रियेषु काये योगे वेदे कषायज्ञाने च । संयमदर्शनलेश्याभव्यतासम्यक्त्वसंझ्याहारे ॥ १४१ ॥ अर्थ-गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान संयम दर्शन लेश्या भव्य सम्यक्त्व संज्ञा आहार । ये चौदह मार्गणा हैं । अन्तरमार्गणाओंके भेद तथा उनके कालका नियम बताते हैं । उबसमसुहमाहारे वेगुचियमिस्सणरअपजत्ते । सासणसम्मे मिस्से सांतरगा मग्गणा अट्ठ ॥ १४२ ॥ उपशमसूक्ष्माहारे वैगूर्विकमिश्रनरापर्याप्ते । सासनसम्यक्त्वे मिश्रे सान्तरका मार्गणा अष्ट ॥ १४२ ॥ अर्थ-उपशमसम्यक्त्व सूक्ष्मसांपराय आहारकयोग आहारकमिश्रयोग वैक्रियिकमिश्र अपर्याप्त मनुष्य सासादनसम्यक्त्व मिश्र ये आठ अन्तरमार्गणा है । उक्त आठ अन्तरमार्गणाओंका उत्कृष्ट और जघन्य काल बताते हैं। सत्तदिणा छम्मासा वासपुधत्तं च बारसमुहुत्ता । पल्लासंखं तिण्हं वरमवरं एगसमयो दु ॥ १४३॥ सप्तदिनानि षण्मासा वर्षपृथक्त्वं च द्वादशमुहूर्ताः । पल्यासंख्यं त्रयाणां वरमवरमेकसमयस्तु ॥ १४३ ॥ अर्थ-उक्त आठ अन्तर मार्गणाओंका उत्कृष्ट काल क्रमसे सात दिन छह महीना For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy