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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसार। पर्याप्ति जिनके पाई जाय उनको पर्याप्त, और जिनकी वह शक्ति पूर्ण नहीं हुई है उन जीवोंको अपर्याप्त कहते हैं । जिसप्रकार घटादिक द्रव्य वनचुकनेपर पूर्ण और उससे पूर्व अपूर्ण कहे जाते हैं । इसही प्रकार पर्याप्ति सहितको पर्याप्त और पर्याप्ति रहितको अपर्याप्त कहते हैं। पर्याप्तिके छह भेद तथा उनके खामियोंका नाम निर्देश करते हैं। आहारसरीरिंदियपजत्ती आणपाणभासमणो। चत्तारि पंच छप्पि य एइंदियवियलसण्णीणं ॥ ११ ॥ आहारशरीरेन्द्रियाणि पर्याप्तयः आनप्राणभाषामनान्सि। . चतस्रः पञ्च षडपि च एकेन्द्रियविकलसंज्ञिनाम् ॥ ११८ ॥ अर्थ-आहार शरीर इन्द्रिय श्वासोच्छ्रास भाषा मन इस प्रकार पर्याप्तिके छह भेद हैं। जिनमें एकेन्द्रिय जीवोंके आदिकी चार पर्याप्ति, और द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय तथा असंज्ञिपंचेन्द्रियके मनःपर्याप्तिको छोड़कर शेष पांच पर्याप्ति होती हैं । और संज्ञि जीवोंके सभी पर्याप्ति होती हैं। भावार्थ-एक शरीरको छोड़कर नवीन शरीरको कारणभूत जिस नोकर्मवर्गणाको जीव ग्रहण करता है उसको खल रस भागरूप परिणमावनेकेलिये जीवकी शक्तिके पूर्ण होजानेको आहारपर्याप्ति कहते हैं। और खलभागको हड्डी आदि कठोर अवयवरूप तथा रसभागको खून आदि द्रव ( नरम ) अवयवरूप परिणमावनेकी शक्तिके पूर्ण होनेको शरीरपर्याप्ति कहते हैं । तथा उस ही नोकर्मवर्गणाके स्कन्धमेंसे कुछ वर्गणाओंको अपनी २ इन्द्रियके स्थानपर उस उस द्रव्येन्द्रियके आकार परिणमावनेकी शक्तिके पूर्ण होजानेको इन्द्रियपर्याप्ति कहते हैं । इसही प्रकार कुछ स्कन्धोंको श्वासोच्छ्रासरूप परिणमावनेकी जो जीवकी शक्तिकी पूर्णता उसको श्वासोच्छ्रास पर्याप्ति कहते हैं। और वचनरूप होनेके योग्य पुद्गल स्कन्धोंको (भाषावर्गणाको) वचनरूप परिणमावनेकी जीवकी शक्तिके पूर्ण होनेको भाषापर्याप्ति कहते हैं । तथा द्रव्यमनरूप होनेको योग्य पुद्गलस्कन्धोंको (मनोवर्गणा) द्रव्यमनके आकार परिणमावनेकी शक्तिके पूर्ण होनेको मनःपर्याप्ति कहते हैं । इन छह पर्याप्तियों में से एकेन्द्रिय जीवों के आदिकी चार पर्याप्ति ही होती हैं। और द्वीन्द्रियसे लेकर असंज्ञिपंचेन्द्रिय पर्यन्त मनःपर्याप्तिको छोड़कर पांच पर्याप्ति होती हैं । और संज्ञि जीवोंके सभी पर्याप्ति होती हैं। जिन जीवोंकी पर्याप्ति पूर्ण हो जाती हैं उनको पर्याप्त, और जिनकी पूर्ण नहीं होती उनको अपर्याप्त कहते हैं । अपर्याप्त जीवोंके भी दो भेद हैं-एक निर्वत्यपर्याप्त दूसरा लब्ध्यपर्याप्त । जिनकी पर्याप्ति अभीतक पूर्ण नहीं हुई है। किन्तु अन्तर्महूर्तके वाद नियमसे पूर्ण होजायगी उनको निर्वृत्त्यपर्याप्त कहते हैं। और जिसकी अभीतक भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं हुई और पूर्ण होनेसे प्रथम ही जिसका मरण भी होजायगा-अर्थात् अपनी आयुके कालमें जिसकी पर्याप्ति कभी पूर्ण न हो उसको लब्ध्यपर्याप्तक कहते हैं। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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