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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ___ इन पर्याप्तियों में से प्रत्येक तथा समस्तके प्रारम्भ और पूर्ण होनेमें कितना काल लगता है यह बताते हैं। पजत्तीपट्ठवणं जुगवं तु कमेण होदि णिवणं । अंतोमुहुत्तकालणहियकमा तत्तियालावा ॥ ११९ ॥ पर्याप्तिप्रस्थापनं युगपत्तु क्रमेण भवति निष्ठापनम् । अन्तर्मुहूर्तकालेन अधिकक्रमास्तावदालापात् ॥ ११९ ॥ अर्थ-सम्पूर्ण पर्याप्तियों का आरम्भ तो युगपत् होता है; किन्तु उनकी पूर्णता क्रमसे होती है। इनका काल यद्यपि पूर्व २ की अपेक्षा उत्तरोत्तरका कुछ २ अधिक है; तथापि सामान्यकी अपेक्षा सबका अन्तर्मुहूर्तमात्र ही काल है । भावार्थ-एकसाथ सम्पूर्ण पर्याप्तियोंके प्रारम्भ होनेके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त कालमें आहारपर्याप्ति पूर्ण होती है । और उससे संख्यातभाग अधिक कालमें शरीर पर्याप्ति पूर्ण होती है । इस ही प्रकार आगे २ की पर्याप्तिके पूर्ण होनेमें पूर्व २ की अपेक्षा कुछ २ अधिक २ काल लगता है, तथापि वह अन्तर्मुहूर्तमात्र ही है । क्योंकि असंख्यात समयप्रमाण अन्तर्मुहूर्तके भी असंख्यात भेद हैं; क्योंकि असंख्यातके भी असंख्यात भेद होते हैं । इस लिये सम्पूर्ण पर्याप्तियोंके समुदायका काल भी अन्तर्मुहूर्तमात्र ही है।। पर्याप्त और निर्वृत्यपर्याप्तका काल बताते हैं । पजत्तस्स य उदये णियणियपजत्तिणिट्टिदो होदि । जाव सरीरमपुण्णं णिवत्ति अपुण्णगो ताव ॥ १२० ॥ पर्याप्तस्य च उदये निजनिजपर्याप्तिनिष्ठितो भवति । यावत् शरीरमपूर्ण निर्वृत्यपूर्णकस्तावत् ॥ १२० ॥ अर्थ-पर्याप्त नामकर्मके उदयसे जीव अपनी २ पर्याप्तियोंसे पूर्ण होता है; तथापि जबतक उसकी शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तबतक उसको पर्याप्त नहीं कहते; किन्तु निर्वृत्यपर्याप्त कहते हैं । भावार्थ-इन्द्रिय श्वासोच्छ्रास भाषा और मन इन पर्याप्तियोंके पूर्ण नहीं होनेपर भी यदि शरीरपर्याप्ति पूर्ण होगई है तो वह जीव पर्याप्त ही है, किन्तु उससे पूर्व निर्वृत्यपर्याप्तक कहा जाता है। लब्ध्यपर्याप्तकका स्वरूप दिखाते हैं। उदये दु अपुण्णस्स य सगसगपजत्तियं ण णिवदि । अंतोमुहुत्तमरणं लद्धिअपजत्तगो सो दु ॥ १२१ ॥ उदये तु अपूर्णस्य च स्वकस्वकपर्याप्ती निष्ठापयति । अन्तर्मुहूर्तमरणं लब्ध्यपर्याप्तकः स तु ॥ १२१ ॥ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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