SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ... अर्थ-जलचरोंके कुल साढ़ेवारह लाख कोटि, पक्षियोंके वारह लाख कोटि, पशुओंके दश लाख कोटि, छातीके सहारे चलनेवाले जीव दुमुही आदिके नव लाख कोटि कुल हैं। छप्पंचाधियवीसं बारसकुलकोडिसदसहस्साई । सुरणेरइयणराणं जहाकम होंति णेयाणि ॥ ११५ ॥ षट्पञ्चाधिकविंशतिः द्वादश कुलकोटिशतसहस्राणि । सुरनैरयिकनराणां यथाक्रमं भवन्ति ज्ञेयानि ॥ ११५ ॥ अर्थ-देव नारकी तथा मनुष्य इनके कुल क्रमसे छव्वीस लाख कोटि, पच्चीस लाख कोटि, तथा वारह लाख कोटि हैं। पूर्वोक्तप्रकारसे भिन्न २ जीवोंके कुलोंकी संख्याको बताकर सबका जोड़ कितना है. यह वताते हैं। एया य कोडिकोडी सत्ताणउदीय सदसहस्साई । पण्णं कोडिसहस्सा सवंगीणं कुलाणं य ॥ ११६ ॥ एका च कोटिकोटी सप्तनवतिश्च शतसहस्राणि । पञ्चाशत्कोटिसहस्राणि सर्वाङ्गिनां कुलानां च ॥ ११६ ॥ अर्थ-सम्पूर्ण जीवोंके समस्त कुलोंकी संख्या, एक कोड़ाकोड़ि सतानवे लाख तथा पचास हजार कोटि है । भावार्थ-सम्पूर्ण कुलोंकी संख्या एक कोड़ि सतानवे लाख पचास हजारको एककोटिसे गुणनेपर जितना लब्ध आवे उतनी है । अर्थात् १९७५००००० ०००००० प्रमाण है। इसप्रकार स्थान योनि देहावगाहना तथा कुलके द्वारा जीवसमास नामक दूसरे अधिकारका वर्णन किया । इति जीवसमासप्ररूपणो नाम द्वितीयोऽधिकारः । इसके अनन्तर तीसरे पर्याप्तिनामक अधिकारका प्रतिपादन करते हैं । जह पुण्णापुण्णाई गिहघडवत्थादियाई दवाई। तह पुण्णिदरा जीवा पजत्तिदरा मुणेयवा ॥ ११७ ॥ यथा पूर्णापूर्णानि गृहघटवस्त्रादिकानि द्रव्याणि । तथा पूर्णेतरा जीवाः पर्याप्तेतरा मन्तव्याः ॥ ११७ ॥ अर्थ-जिसप्रकार घर घट वस्त्र आदिक अचेतन द्रव्य पूर्ण और अपूर्ण दोनों प्रकारके होते हैं । उस ही प्रकार जीव भी पूर्ण और अपूर्ण दो प्रकारके होते हैं। जो पूर्ण हैं उनको पर्याप्त और जो अपूर्ण हैं उनको अपर्याप्त कहते हैं। भावार्थ-गृहीत आहारवर्गणाको खल. रस भागादिरूप परिणमानेकी जीवकी शक्तिके पूर्ण होजानेको पर्याप्ति कहते हैं । यह For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy