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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४३ गोम्मटसार। सूक्ष्मेतरगुणकार आवलिपल्यासंख्येयभागस्तु । स्वस्थाने श्रेणिगता अधिकास्तत्रैकप्रतिभागः ॥ १०१ ॥ अर्थ-सूक्ष्म और बादरोंका गुणकार खस्थानमें क्रमसे आवली और पत्यके असंख्यात में भाग है । और श्रेणिगत वाईस स्थान अपने २ एक प्रतिभागप्रमाण अधिक २ हैं । भावार्थ-सूक्ष्म निगोदियासे सूक्ष्म वायुकायका प्रमाण आवलीके असंख्यातमें भागसे गुणित है, और इसीप्रकार सूक्ष्मवायुकायसे सूक्ष्म तेजकायका और सूक्ष्मतेजकायसे सूक्ष्मजलकायका सूक्ष्मजलकायसे सूक्ष्म पृथिवीकायका प्रमाण उत्तरोत्तर आवलीके असंख्यातमें २ भागसे गुणित है । परन्तु सूक्ष्म पृथिवीकायसे बादर वातकायका प्रमाण परस्थान होनेसे पल्यके असंख्यातमें भागगुणित है । इसीप्रकार बादर बातकायसे बादर तेजकायका और बादर तेजकायसे बादर जलकायादिका प्रमाण उत्तरोत्तर क्रमसे पत्यके असंख्यातमें भाग २ गुणा है। इसीप्रकार आगेके स्थान भी समझना । परन्तु श्रेणिगत वाईस स्थानोंमें गुणाकार नहीं है। किन्तु उत्तरोत्तर अधिक २ हैं, अर्थात् वाईस स्थानोंमें जो सूक्ष्म हैं वे आवलीके असंख्यातमे भाग अधिक है, और जो बादर हैं वे पल्यके असंख्यातमे भाग अधिक हैं। . ___ सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनासे सूक्ष्म वायुकायकी अवगाहना आवलीके असंख्यातमे भाग गुणित है यह पहले कह आये हैं। अब इसमें होनेवाली चतुःस्थानपतित वृद्धिकी उत्पत्तिका क्रम तथा उसके मध्यमें होनेवाले अनेक अवगाहनाके भेदोंको कहते हैं। अवरुवरि इगिपदेसे जुदे असंखेजभागवड्डीए । आदी णिरंतरमदो एगेगपदेसपरिवड्डी ॥ १०२॥ अवरोपरि एकप्रदेशे युते असंख्यातभागवृद्धेः । आदिः निरन्तरमतः एकैकप्रदेशपरिवृद्धिः ॥ १०२ ।। अर्थ-जघन्य अवगाहनाके प्रमाणमें एक प्रदेश और मिलानेसे जो प्रमाण होता है वह असंख्यातभागवृद्धिका आदिस्थान है । इसके आगे भी क्रमसे एक २ प्रदेशकी वृद्धि करना चाहिये । और ऐसा करते २ अवरोग्गाहणमाणे जहण्णपरिमिदअसंखरासिहिदे । अवरस्सुवरिं उद्वे जेट्टमसंखेजभागस्स ॥ १०३ ॥ अवरावगाहनाप्रमाणे जघन्यपरिमितासंख्यातराशिहते।। अवरस्योपरि वृद्धे ज्येष्ठमसंख्यातभागस्य ॥ १०३ ॥ अर्थ-जघन्य अवगाहनाके प्रमाणमें जघन्यपरीतासंख्यातका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतने प्रदेश जघन्य अवगाहनामें मिलानेपर असंख्यातभागवृद्धिका उत्कृष्ट स्थान होता है। आदि For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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