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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । तस्सुवरि इगिपदेसे जुदे अवत्तवभागपारम्भो । वरसंखमवहिदवरे रूऊणे अवरउपरिजुदे ॥ १०४ ॥ तस्योपरि एकप्रदेशे युते अवक्तव्यभागप्रारम्भः। वरसंख्यातावहितावरे रूपोने अवरोपरि युते ॥ १०४ ॥ अर्थ-असंख्यातभागवृद्धिके उत्कृष्ट स्थानके आगे एक प्रदेशकी वृद्धि करनेसे अवक्तव्यं भागवृद्धिका प्रारम्भ होता है । इसमें एक २ प्रदेशकी वृद्धि होते २, जब जघन्य अवगाहनाके प्रमाणमें उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसमें एक कमकरके जधन्यके प्रमाणमें मिलादिया जाय तबः- . तबड्डीए चरिमो तस्सुवारें रूबसंजुदे पढमा। संखेजभागउड्डी उबरिमदो रूबपरिवड्डी ॥ १.५ ॥ तद्वृद्धेश्वरमः तस्योपरि रूपसंयुते प्रथमा । संख्यातभागवृद्धिः उपर्यतो रूपपरिवृद्धिः ॥ १०५ ॥ अर्थ-अवक्तव्यभागवृद्धिका उत्कृष्ट स्थान होता है । इसके आगे एक और मिलानेसे संख्यातभागवृद्धिका प्रथम स्थान होता है और इसके आगे एक २ की वृद्धि करते २ जबः अवरद्धे अवरुबरिं उड्डे तवडिपरिसमत्ती हु। रूवे तदुबरि उड्ढे होदि अवत्तवपढमपदं ॥ १०६ ॥ अवरा॰ अवरोपरिवृद्धे तवृद्धिपरिसमाप्तिर्हि । रूपे तदुपरि वृद्धे भवति अवक्तव्यप्रथमपदम् ॥ १०६ ॥ अर्थ-जघन्यका जितना प्रमाण है उसमें उसका ( जघन्यका ) आधा और मिलानेसे संख्यातभागवृद्धिका उत्कृष्टस्थान होता है । इसके आगे भी एक प्रदेशकी वृद्धि करनेपर अवक्तव्यवृद्धिका प्रथम स्थान होता है। रूऊणवरे अवरुस्सुवरि संवढिदे तदुक्कस्सं । तमि पदेसे उड्ढे पढमा संखेजगुणवढी ॥ १०७॥ रूपोनावरे अवरस्योपरि संवर्धिते तदुत्कृष्ठम् ।। तस्मिन् प्रदेशे वृद्धे प्रथमा संख्यातगुणवृद्धिः ॥ १०७ ॥ अर्थ-जघन्यके प्रमाणमें एक कम जघन्यका ही प्रमाण और मिलानेसे अवक्तव्यवृ. द्धिका उत्कृष्ट स्थान होता है । और इसमें एक प्रदेश और मिलानेसे संख्यातगुणवृद्धिका प्रथम स्थान होता है। अवरे वरसंखगुणे तचरिमो तम्हि रूबसंजुत्ते । उग्गाहणम्हि पढमा होदि अवत्तवगुणवड्डी ॥ १०८ ॥ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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