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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । पंचेन्द्रियका क्रमसे स्थापन करना। इन सम्पूर्ण चौंसठ स्थानोंमें व्यालीस स्थान उत्तरोत्तर गुणिसक्रम हैं । भावार्थ-आदिके तीन कोठोमें स्थापित सोलह स्थान और जिन ग्यारहस्थानोंको तीन श्रेणियोंमें स्थापित किया था उनमेंसे नीचेकी दो श्रेणियोंमें स्थापित वाईस स्थानोंको छोड़कर ऊपरकी श्रेणिके ग्यारहस्थान । तथा इसके आगे तीन कोठोंमें स्थापित पन्द्रह स्थान । सब मिलाकर व्यालीस स्थान उत्तरोत्तर गुणितक्रम हैं । और दूसरी तीसरी श्रेणिके वाईस स्थान अधिकक्रम हैं । व्यालीस स्थानोंके गुणाकारका प्रमाण और वाईसस्थानोंके अधिकका प्रमाण आगे बतावेंगे। यहांपर उक्त स्थानोंके खामियोंको बताते हैं। अवरमपुण्णं पढम सोलं पुण पढमबिदियतदियोली। पुण्णिदरपुण्णयाणं जहण्णमुक्कस्समुक्कस्स ॥ ९९ ॥ .. अवरमपूर्ण प्रथमे षोडश पुनः प्रथमद्वितीयतृतीयाबलिः । पूर्णेतरपूर्णानां जघन्यमुत्कृष्टमुत्कृष्टम् ॥ ९९ ॥ अर्थ-आदिके सोलह स्थान जघन्य अपर्याप्तकके हैं । और प्रथम द्वितीय तृतीयश्रेणि क्रमसे पर्याप्तक अपर्याप्तक तथा पर्याप्तककी जघन्य उत्कृष्ट और उत्कृष्ट समझनी चाहिये। भावार्थ-प्रथम तीन कोठोंमें विभक्त सोलह स्थानों में अपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना बताई है। और इसके आगे प्रथम श्रेणिके ग्यारह स्थानों में पर्याप्तककी जघन्य और इसके नीचे दूसरी श्रेणिमें अपर्याप्तककी उत्कृष्ट तथा इसके भी नीचे तीसरी श्रेणिमें पर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट अवगाहना समझनी चाहिये । पुण्णजहण्णं तत्तो वरं अपुण्णस्स पुण्णउक्कस्सं । वीपुण्णजहण्णोत्ति असंखं संखं गुणं तत्तो ॥ १०॥ पूर्णजघन्यं ततो वरमपूर्णस्य पूर्णोत्कृष्टम् । द्विपूर्णजघन्यमिति असंख्य संख्यं गुणं ततः ॥ १० ॥ - अर्थ-श्रेणिके आगेके प्रथम कोठेमें ( छट्टे कोठे ) पर्याप्तककी जघन्य और दूसरे कोठेमें अपर्याप्तककी उत्कृष्ट तथा तीसरे कोठेमें पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना समझनी चाहिये। द्वीन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना पर्यन्त असंख्यातका गुणाकार है, और इसके आगे संख्यातका गुणाकार है । भावार्थ-पहले जो व्यालीस स्थानोंको गुणितक्रम वताया था उनमेंसे आदिके उनतीस स्थान ( सूक्ष्म निगोदिया अपर्याप्तक जघन्यसे लेकर द्वीन्द्रिय पर्याप्तकी जघन्य अवगाहना पर्यन्त ) उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे २ हैं । और इसके आगे तेरह स्थान उत्तरोत्तर संख्यातगुणे २ हैं ।। गुणाकार रूप असंख्यातका और श्रेणिगत वाईस स्थानों के अधिकका प्रमाण बताते हैं। सुहमेदरगुणगारो आवलिपल्लाअसंखभागो दु । सट्टाणे सेढिगया अहिया तत्थेकपडिभागो ॥ १.१॥ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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