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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । निर्जरा क्रमसे असंख्यातगुणी २ अधिक होती है । और उसका काल इससे विपरीत है-क्रमसे उत्तरोत्तर संख्यातगुणा २ हीन है। भावार्थ-सादि अथवा अनादि दोनोंही प्रकारका मिथ्यादृष्टि जब करणलब्धिको प्राप्त कर उसके अधःकरणपरिणामोंको भी विताकर अपूर्वकरण परिणामोंको ग्रहण करता है, उस समयसे गुणश्रेणिनिर्जराका प्रारम्भ होता है। इस सातिशय मिथ्यादृष्टिके जो कर्मोंकी निर्जरा होती है वह पूर्वकी निर्जरासे असंख्यातगुणी अधिक है। श्रावक अवस्था प्राप्त होनेपर जो कर्मकी निर्जरा होती है वह सातिशयमिथ्यादृष्टिकी निर्जरासे भी असंख्यातगुणी अधिक है । इसीप्रकार विरतादिस्थानोंमें भी उत्तरोत्तर क्रमसे असंख्यातगुणी २ कर्मकी निर्जरा होती है । तथा इस निर्जराका काल उत्तरोत्तर संख्यातगुणा २ हीन है । अर्थात् सातिशय मिथ्यादृष्टिकी निर्जरामें जितना काल लगता है, श्रावककी निर्जरामें उससे संख्यातगुणा कम काल लगता है । इसी प्रकार विरतादिमें भी समझना चाहिये। इस प्रकार चौदहगुणस्थानोंमें रहनेवाले जीवोंका वर्णन करके अब गुणस्थानोंका अतिक्रमण करनेवाले सिद्धोंका वर्णन करते हैं । अट्टविहकम्मवियला सीदीभूदा णिरंजणा णिचा । अट्ठगुणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा ॥ ६८॥ अष्टविधकर्मविकलाः शीतीभूता निरञ्जना नित्याः । अष्टगुणाः कृतकृत्याः लोकाग्रनिवासिनः सिद्धाः ॥ ६८ ॥ अर्थ-जो ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मोंसे रहित हैं, अनन्तसुखरूपी अमृतके अनुभव करनेसे शान्तिमय हैं, नवीन कर्मबन्धको कारणभूत मिथ्यादर्शनादि भावकर्मरूपी अञ्जनसे रहित हैं, नित्य हैं, ज्ञान दर्शन सुख वीर्य अव्यावाध अवगाहन सूक्ष्मत्व अगुरुलघु ये आठ मुख्यगुण जिनके प्रकट हो चुके हैं, कृतकृत्य ( जिनको कोई कार्य करना बाकी नहीं रहा है ) हैं, लोकके अग्रभागमें निवास करनेवाले हैं, उनको सिद्ध कहते हैं । सिद्धोंको दियेहुये इन सात विशेषणों का प्रयोजन दिखाते हैं । सदसिव संखो मकडि बुद्धो णेयाइयो य वेसेसी। ईसरमंडलिदसणविदूसणहँ कयं एवं ॥ ६९ ॥ सदाशिवः सांख्यः मस्करी बुद्धो नैयायिकश्च वैशेषिकः । ईश्वरमण्डलिदर्शनविदूषणार्थं कृतमेतत् ॥ ६९ ॥ अर्थ-सदाशिव, सांख्य; मस्करी, बौद्ध, नैयायिक और वैशेषिक, कर्तृवादी ( ईश्वरको कर्ता माननेवाले ), मण्डली इनके मतोंका निराकरण करनेके लिये ये विशेषण दिये For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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