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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसार। हैं । भावार्थ-सदाशिव मतवाला जीवको सदा कर्मसे रहितही मानता है, उसके निराकरणके लिये ही ऐसा कहा है कि सिद्ध अवस्था प्राप्त होनेपर ही जीव कर्मोंसे रहित होता है सदा नहीं । सिद्ध अवस्थासे पूर्व संसार अवस्थामें कर्मोंसे सहित रहता है । सांख्यमतवाला मानता है कि "बन्ध मोक्ष सुख दुःख प्रकृतिको होते हैं आत्माको नहीं"। इसके निराकरणके लिये "सुखस्वरूप" ऐसा विशेषण दिया है । मस्करीमतवाला मुक्तजीवोंका लौटना मानता है, उसको दृषित करनेके लिये ही कहा है कि "सिद्ध निरञ्जन हैं।" अर्थात् मिथ्यादर्शन क्रोध मानादि भावकोंसे रहित हैं, क्योंकि विना भावकर्मके नवीन कर्मका ग्रहण नहीं हो सकता और विना कर्मग्रहणके निर्हेतुक संसारमें लौट नहीं सकता। बौद्धोंका मत है कि "सम्पूर्ण पदार्थ क्षणिक अर्थात् क्षणध्वंसी हैं। उसको दूषित करनेके लिये कहा है कि वे " नित्य" हैं । नैयायिक तथा वैशेषिकमतवाले मानते हैं कि "मुक्तिमें बुद्ध्यादिगुणोंका विनाश होजाता है," उसको दूर करनेकेलिये "ज्ञानादि आठगुणोंसे सहित हैं" ऐसा कहा है। ईश्वरको कर्ता माननेवालोंके मतके निराकरणके लिये "कृतकृत्य" विशेषण दिया है। अर्थात् अब (मुक्त होनेपर) जीवको सृष्टि आदि बनानेका कार्य शेष नहीं रहा है । मण्डली मतवाला मानता है कि "मुक्तजीव सदा ऊपरको गमन ही करता जाता है, कभी ठहरता नहीं" उसके निराकरणके लिये "लोकके अग्रभागमें स्थित हैं" ऐसा कहा है। इति गुणस्थानप्ररूपणानामा प्रथमोऽधिकारः। क्रमप्राप्त जीवसमासप्ररूपणाका निरुक्तिपूर्वक सामान्य लक्षण कहते हैं । जेहिं अणेया जीवा णजंते बहुविहा वि तज्जादी। ते पुण संगहिदत्था जीवसमासात्ति विण्णेया ॥ ७० ॥ यैरनेके जीवा नयन्ते बहुविधा अपि तज्जातयः ।। ते पुनः संगृहीतार्था जीवसमासा इति विज्ञेयाः॥ ७० ॥ अर्थ-जिनके द्वारा अनेक जीव तथा उनकी अनेक प्रकारकी जाति जानी जाय उन धर्मोको अनेक पदार्थोंका संग्रह करनेवाला होनेसे जीवसमास कहते हैं, ऐसा समझना चाहिये । भावार्थ-उन धर्मविशेषोंको जीवसमास कहते हैं कि जिनके द्वारा अनेक जीव अथवा जीवकी अनेक जातियोंका संग्रह किया जासके ॥ उत्पत्तिके कारणकी अपेक्षा लेकर जीवसमासका लक्षण कहते हैं । तसचदुजुगाणमज्झे अविरुद्धेहिं जुदजादिकम्मुदये। जीवसमासा होंति हु तब्भवसारिच्छसामण्णा ॥ ७१ ॥ १ सदाशिवः सदाऽकर्मा सांख्यो मुक्तं सुखोज्झितं । मस्करी किल मुक्तानां मन्यते पुनरागतिम् ॥ १॥ क्षणिकं निर्गुणं चैव बुद्धो यौगश्च मन्यते । कृतकृत्यं तमीशानों मण्डलीचोर्ध्वगामिनम् ॥ २॥ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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