SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसार।. नका विनाश होतेही जिसके ज्ञानावरणादि तीनं घाति और सोलह अघाति प्रकृति, सम्पूर्ण मिलाकर ६३ प्रकृतियोंके नष्ट होनेसे अनन्त चतुष्टय तथा नव केवललब्धि प्रकट हो चुकी हैं और काय योगसे युक्त है उस अरहंतको तेरहमे गुणस्थानवर्ती कहते हैं । चौदहमे अयोगकेवली गुणस्थानको कहते हैं । सीलेसिं संपत्तो णिरुद्धणिस्सेसआसवो जीवो । कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होदि ॥ ६५ ॥ शीलैश्यं संप्राप्तः निरुद्धनिःशेषास्रवो जीवः । कर्मरजोविप्रमुक्तो गतयोगः केवली भवति ॥ ६५ ॥ अर्थ-जो अठारह हजार शीलके भेदोंका खामी हो चुका है । और जिसके कर्मोंके आनेका द्वाररूप आस्रव सर्वथा बन्द होगया है । तथा सत्त्व और उदय अवस्थाको प्राप्त कर्मरूप रजकी सर्वोत्कृष्ट निर्जरा होनेसे, जो उस कर्मसे सर्वथा मुक्त होनेके सम्मुख है, उस काय योगरहित केवलीको चौदहमे गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली कहते हैं। भावार्थ-शीलकी पूर्णता यहींपर होती है इसलिये जो शीलका खामी होकर पूर्ण संवर और निर्जराका पात्र होनेसे मुक्त अवस्थाके सम्मुख है ऐसे काययोगसे भी रहित केवलीको चौदहमें गुणस्थानवर्ती कहते हैं। इसप्रकार चौदह गुणस्थानोंको कहकर, अब उनमें होनेवाली आयुकर्मके विना शेष सातकर्मोंकी गुणश्रेणिनिर्जराको दो गाथाओं द्वारा कहते हैं। सम्मतुप्पत्तीये सावयविरदे अणंतकम्मंसे । दसणमोहक्खबगे कसायउबसामगे य उबसंते ॥ ६६ ॥ सम्यक्त्वोत्पत्तौ श्रावकविरते अनन्तकाशे । दर्शनमोहक्षपके कषायोपशामके चोपशान्ते ॥ ६६॥ . खबगे य खीणमोहे जिणेसु दवा असंखगुणिदकमा। तविवरीया काला संखेजगुणकमा होति ॥ ६७ ॥ (जुम्म) क्षपके च क्षीणमोहे जिनेषु द्रव्याण्यसंख्यगुणितक्रमाणि ।। तद्विपरीताः कालाः संख्यातगुणक्रमा भवन्ति ॥ ६७ ॥ (युग्मम्) अर्थ-सातिशय मिथ्यादृष्टि, श्रावक,विरत, अनन्तानुबन्धी कर्मका विसंयोजन करनेवाला, दर्शनमोहनीयकर्मका क्षय करनेवाला, कषायोंका उपशम करनेवाले ८-९-१० गुणस्थानवर्ती जीव, उपशान्तकषाय, कषायोंका क्षपण करनेवाले ८-९-१० गुणस्थानवी जीव, क्षीणमोह, सयोगी अयोगी दोनोंप्रकारके जिन, इन ग्यारह स्थानोंमें द्रव्यकी अपेक्षा . कर्मकी १ मोहनीय कर्म पहले ही नष्ट हो चुका है इस लिये यहां तीनही लेना चाहिये । २ मोहनीय सहित । For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy