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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । चतुर्थ गुणस्थानका लक्षण बताने के पूर्व उसमें होनेवाले सभ्यग्दर्शन के औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक इन तीन भेदोंमें से प्रथम क्षायोपशमिकका लक्षण करते हैं । सम्मत्तदेसघादिस्सुदयादो वेदगं हवे सम्मं । चलमलिनमगाढं तं णिचं कम्मक्खवणहेदु ॥ २५ ॥ सम्यक्त्वदेशघातेरुदयाद्वेदकं भवेत्सम्यक्त्वम् । चलं मलिनमगाढं तन्नित्यं कर्मक्षपणहेतु ॥ २५ ॥ अर्थ-सम्यग्दर्शनगुणको विपरीत करनेवाली प्रकृतियोंमेंसे देशघाति सम्यक्त्व प्रकृति के उदय होने पर ( तथा अनन्तानुबन्धि चतुष्क और मिथ्यात्व मिश्र इन सर्वघाति प्रकृतियोंके आगामि निषेकोंका सदवस्थारूप उपशम और वर्तमान निषेकोंकी विना फल दिये ही निर्जरा होनेपर ) जो आत्माके परिणाम होते हैं उनको वेदक या क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं । वे परिणाम चल मलिन या अगाढ़ होते हुए भी नित्य ही अर्थात् जघन्य अन्तमुहूर्तसे लेकर उत्कृष्ट छयासठ सागरपर्यन्त कर्मोंकी निर्जराको कारण हैं । जिसप्रकार एकही जल अनेक कल्लोलरूपमें परिणत होता है उसही प्रकार जो सम्यग्दर्शन सम्पूर्ण तीर्थकर या अर्हन्तोंमें समान अनन्त शक्तिके होने पर भी 'श्रीशान्तिनाथजी शान्तिकेलिये और श्रीपार्श्वनाथजी रक्षा करने के लिये समर्थ हैं' इस तरह नाना विषयोंमें चलायमान होता है उस को चल सम्यग्दर्शन कहते हैं । जिस प्रकार शुद्ध सुवर्ण भी मलके निमित्तसे मलिन कहा जाता है उसही तरह सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयसे जिसमें पूर्ण निर्मलता नहीं है उसको मलिन सम्यग्दर्शन कहते हैं । जिस तरह वृद्ध पुरुष के हाथमें ठहरी हुई भी लाठी कांपती है उसही तरह जिस सम्यग्दर्शनके होते हुए भी अपने वनवाये हुए मन्दिरादिमें 'यह मेरा मन्दिर है' और दूसरेके वनवाये हुए मन्दिरादिमें “ यह दूसरेके हैं ' ऐसा भ्रम हो उसको अगाढ सम्यग्दर्शन कहते हैं। अब औपशमिक या क्षायिक सम्यग्दर्शनका लक्षण कहते हैं । सत्तण्हं उबसमदो उबसमसम्मो खयादु खइयो य । बिदियकसायुदयादो असंजदो होदि सम्मो य ॥ २६ ॥ __ सप्तानामुपशमत उपशमसम्यक्त्वं क्षयात्तु क्षायिकं च । _ द्वितीयकषायोदयादसंयतं भवति सम्यक्त्वं च ॥ २६॥ अर्थ-तीन दर्शनमोहनीय अर्थात् मिथ्यात्व मिश्र और सम्यक्त्व तथा चार अनन्तानुबन्धी कषाय इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे उपशम और सर्वथा क्षयसे क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है । इस (चतुर्थगुणस्थानवर्ती ) सम्यग्दर्शन के साथ संयम बिलकुल ही नहीं होता; क्योंकि यहां पर दूसरी अप्रत्याख्यानावरणकषायका उदय है । अत एव इस गुणस्थानवर्ती जीवको असंयतसम्यग्दृष्टि कहते हैं। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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