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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसार । इस गुणस्थानमें जो कुछ विशेषता है उसको दिखाते हैं । सम्माइट्टी जीवो उवइटें पबयणं तु सद्दहदि । सदहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥ २७ ॥ सम्यग्दृष्टिीव उपदिष्टं प्रवचनं तु श्रद्दधाति । श्रद्दधात्यसद्भावमज्ञायमानो गुरुनियोगात् ॥ २७ ॥ अर्थ-सम्यग्दृष्टि जीव आचार्योंके द्वारा उपदिष्ट प्रवचनका श्रद्धान करता है, किन्तु अज्ञानतावश गुरुके उपदेशसे विपरीत अर्थका भी श्रद्धान करलेता है । भावार्थ “ अरहंतदेवका ऐसा ही उपदेश है" ऐसा समझकर यदि कोई पदार्थका विपरीत श्रद्धान भी करता है तो भी वह सम्यग्दृष्टि ही है; क्योंकि उसने अरहंतका उपदेश समझकर उस पदार्थका वैसा श्रद्धान किया है परन्तु सुत्तादो तं सम्मं दरसिजंतं जदा ण सद्दहदि । सो चेव हवइ मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी ॥ २८ ॥ सूत्रात्तं सम्यक् दर्शयन्तं यदा न श्रद्दधाति । स चैव भवति मिथ्यादृष्टि वस्तदा प्रभृति ॥ २८ ॥ अर्थ-गणधरादिकथित सूत्रके आश्रयसे आचार्यादि के द्वारा भलेप्रकार समझाये जाने पर भी यदि वह जीव उस पदार्थका समीचीन श्रद्धान न करै तो वह जीव उस ही कालसे मिथ्यादृष्टि होजाता है । भावार्थ-आगममें दिखाकर समीचीन पदार्थके समझाने पर भी यदि वह जीव पूर्वमें अज्ञानसे किये हुए अतत्त्वश्रद्धानको न छोडे तो वह जीव उसही कालसे मिथ्यादृष्टि कहा जाता है । चतुर्थगुणस्थानवी जीवका और भी विशेष स्वरूप दिखाते हैं। णो इन्दियेसु विरदो णो जीवे थावरे तसे वापि । जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥ २९॥ नो इन्द्रियेषु विरतो नो जीवे स्थावरे त्रसे वापि । यः श्रद्दधाति जिनोक्तं सम्यग्दृष्टिरविरतः सः ॥ २९ ॥ अर्थ-जो इन्द्रियोंके विषयोंसे तथा त्रस स्थावर जीवोंकी हिंसासे विरक्त नहीं है, किन्तु जिनेन्द्रदेवद्वारा कथित प्रवचनका श्रद्धान करता है वह अविरतसम्यग्दृष्टि है। भावार्थ संयम दो प्रकारका होता है, एक इन्द्रियसंयम दूसरा प्राणसंयम । इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होनेको इन्द्रियसंयम, और अपने तथा परके प्राणोंकी रक्षाको प्राणसंयम कहते हैं । इस गुणस्थानमें दोनों संयमोंमेंसे कोई भी संयम नहीं होता अत एव इसको अविरत सम्यग्दृष्टि कहते हैं । परन्तु इस गुणस्थानमें जो अपि शब्द पड़ा है उससे सूचित होता है कि विना प्रयोजन किसी हिंसामें प्रवृत्त भी नहीं होता । For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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