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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २६० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । मग्गण उवजोगावि य सुगमा पुवं परूविदत्तादो। गदिआदिसु मिच्छादी परूविदे रूविदा होंति ॥ ७०२॥ मार्गणा उपयोगा अपि च सुगमाः पूर्व प्ररूपितत्वात् । गत्यादिषु मिथ्यात्वादौ प्ररूपिते रूपिता भवंति ॥ ७०२ ।। - अर्थ-पहले मार्गणास्थानकमें गुणस्थान और जीवसमासादिका निरूपण करचुके हैं इसलिये यहां गुणस्थानके प्रकरणमें मार्गणा और उपयोगका निरूपण करना सुगम है । भावार्थ-मार्गणा और उपयोग किसतरह सुगम है यह संक्षेपमें यहां पर स्पष्ट करते हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें नारकादि चारो ही गति पर्याप्त और अपर्याप्त होती हैं । सासादन गुणस्थानमें नरकगतिको छोड़कर शेष तीनों गति पर्याप्त अपर्याप्त होती हैं । और नरक गति पर्याप्त ही है । मिश्रगुणस्थानमें चारों ही गति पर्याप्त ही होती हैं । असंयत गुणस्थानमें प्रथम नरक पर्याप्त भी है अपर्याप्त भी है। शेष छहों नरक पर्याप्त ही हैं । तिर्यग्गतिमें भोगभूमिज तिर्यंच पर्याप्त अपर्याप्त दोनों ही होते हैं। कर्मभूमिज तिर्यच पर्याप्त ही होते हैं। मनुष्यगतिमें भोगभूमिज मनुष्य और कर्मभूमिज मनुष्य भी पर्याप्त अपर्याप्त दोनों प्रकारके होते हैं । देवगतिमें भवनत्रिक पर्याप्त ही होते हैं । और वैमानिक देव पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं । देशसंयत गुणस्थानमें कर्मभूमिज तिर्यच और मनुष्य ये दो ही और पर्याप्त ही होते हैं । प्रमत्तगुणस्थानमें मनुष्य पर्याप्त ही होते हैं। किन्तु आहारक शरीरकी अपेक्षा पर्याप्त अपर्याप्त दोनों होते हैं । अप्रमत्तसे लेकर क्षीणकषायपर्यन्त मनुष्य पर्याप्त ही होते हैं। सयोगकेवलियोंमें पर्याप्त तथा समुद्धातकी अपेक्षा अपर्याप्त भी मनुष्य होते हैं । अयोगकेवलियोंमें मनुष्य पर्याप्त ही होते हैं । इन्द्रियमार्गणाके पांच भेद हैं । ये पांचो ही मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें पर्याप्त अपर्याप्त दोनों प्रकारके होते हैं । सासादनमें पांचो अपर्याप्त होते हैं; किन्तु पंचेन्द्रिय पर्याप्त ही होता है अर्थात् अपर्याप्त अवस्थामें पांचो ही इन्द्रियवालोंके सासादन गुणस्थान होता है; किन्तु पर्याप्त अवस्थामें पंचेन्द्रियके ही सासादन गुणस्थान होता है । मिश्रगुणस्थानमें पंचेन्द्रिय पर्याप्त ही है । असंयतमें पंचेन्द्रिय पर्याप्त वा अपर्याप्त होते हैं। देशसंयतसे लेकर अयोगीपर्यन्त सर्वगुणस्थानोंमें पंचेन्द्रिय पर्याप्त ही होते है; किन्तु छठे गुणस्थानमें आहारककी अपेक्षा और सयोगीमें समुद्धातकी अपेक्षा अपर्याप्त पंचेन्द्रिय भी होता है। कायके छह भेद हैं । पांच स्थावर और एक ब्रस । ये छहों मिथ्यात्वमें पर्याप्त अपर्याप्त दोनों होते हैं। सासादनमें बादर-पृथ्वी जल वनस्पती तथा द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त ही होते हैं और संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त अपर्याप्त दोनों ही होते हैं। मिश्रगुणस्थानसे लेकर अयोगीतक संज्ञी त्रसकाय पर्याप्त ही होता है; किन्तु असंयत गुणस्थानमें तथा For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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