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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। २६१ आहारककी अपेक्षा प्रमत्तमें और समुद्धातकी अपेक्षा सयोगीमें संज्ञीत्रसकाय अपर्याप्त भी होता है। भावयोग आत्माकी शक्तिरूप है यह पहले कहचुके हैं । मन-वचन-कायके निमित्तसे जीवप्रदेशोंके चंचल होनेको द्रव्य योग कहते हैं । इसके तीन भेद हैं, मन वचन काय। इसमें मन और वचनके चार २ भेद हैं-सत्य असत्य उभय अनुभय । काययोगके सात भेद हैं-औदारिक वैक्रियिक आहारक और इन तीनोंकेमिश्र तथा कार्माण । इस प्रकार योगके पन्द्रह भेद होते हैं । इनमेंसे किस २ गुणस्थानमें कितने २ योग होते हैं यह बतानेकेलिये आचार्य सूत्र करते हैं तिसु तेरं दस मिस्से सत्तसु णव छठ्ठयम्मि एयारा । जोगिम्मि सत्त जोगा अजोगिठाणं हवे सुण्णं ॥ ७०३ ॥ त्रिषु त्रयोदश दश मिश्रे सप्तसु नव षष्ठे एकादश । योगिनि सप्त योगा अयोगिस्थानं भवेत् शून्यम् ।। ७०३ ॥ अर्थ-मिथ्यादृष्टि सासादन असंयत इन तीन गुणस्थानोंमें उक्त पन्द्रह योगोंमेंसे आहारक आहारकमिश्रको छोड़कर शेष तेरह योग होते हैं । मिश्रगुणस्थानमें उक्त तेरहयोगमेंसे औदारिकमिश्र वैक्रियिकमिश्र कार्माण इन तीनोके घटजानेसे शेष दश योग होते हैं । इसके ऊपर छटे गुणस्थानको छोड़कर सात गुणास्थानोंमें नव योग होते हैं, क्योंकि उक्त दश योगोंमेंसे वैक्रियिक योग और भी घट जाता है । किन्तु छठे गुणस्थानमें ग्यारह योग होते हैं; क्योंकि उक्त दश योगोंमेंसे वैक्रियिक योग घटता है और आहारक आहारकमिश्र ये दो योग मिलते हैं। सयोगकेवलीमें सातयोग होते हैं वे ये हैं सत्यमनोयोग अनुभवयोग सत्यवचनयोग अनुभयवचनयोग औदारिक औदारिकमिश्र कार्माण । अयोगकेवलीके कोई भी गुणस्थान नहीं होता। भावार्थ-इस सूत्रमें प्रत्येक गुणस्थानमें कितने २ योग होते हैं उनको बताकर अब वेदादिक मार्गणाओंको बताते हैं । वेदके तीन भेद है, स्त्री पुरुष नपुंसक । ये तीनों ही वेद अनिवृत्ति करणके सवेद भागपर्यन्त होते हैं—आगे किसी भी गुणस्थानमें नहीं होते । कषायके चार भेद हैं । क्रोध मान माय लोभ-इनमें प्रत्येकके अनंतानुबन्धी आदि चार २ भेद होते हैं । इस प्रकार कषायके सोलह भेद होते हैं। इनमेंसे मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थानमें अनंतानुबन्धी आदि चारो कषायका उदय रहता है । मिश्र और असंयतमें अनंतानुबंधीको छोड़कर शेष तीन कषाय रहते हैं। देशसंयतमें प्रत्याख्यान और संज्वलन ये दो ही कषाय रहते हैं । प्रमत्तादिक अनिवृत्तिकरणके दूसरे भागपर्यन्त संज्वलन कषाय रहता है । तीसरे भागमें संज्वलनके मान माया लोभ ये तीन ही भेद रहते हैं-क्रोध नहीं रहता । चौथे भागतक माया और लोभ, तथा पांचमे भागतक बादर लोभ रहता है। दशमे गुणस्थान तक सूक्ष्मलोभ रहता है । इसके ऊपर सर्व गुणस्थान कषायरहित For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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