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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। २५९ तिर्यग्गतौ चतुर्दश भवन्ति शेषेषु जानीहि द्वौ द्वौ तु । मार्गणास्थानस्यैवं ज्ञेयानि समासस्थानानि ॥ ६९९ ॥ अर्थ-मार्गणास्थानके जीवसमासोंको संक्षेपसे इसप्रकार समझना चाहिये कि तिर्यग्गतिमार्गणामें तो चौदह जीवसमास होते हैं । और शेष समस्त गतियोंमें दो दो ही जीवसमास होते हैं। गुणस्थानोंमें पर्याप्ति और प्राणोंको बताते हैं । पजत्ती पाणावि य सुगमा भाविंदयं ण जोगिम्हि । तहि वाचुस्सासाउगकायत्तिगद्गमजोगिणो आऊ ॥ ७०० ॥ पर्याप्तयः प्राणा अपि च सुगमा भावेन्द्रियं न योगिनि । ___तस्मिनू वागुच्छासायुष्ककायत्रिकद्विकमयोगिन आयुः ॥ ७०० ॥ अर्थ-पर्याप्ति और प्राण ये सुगम हैं, इसलिये यहां पर इनका पृथक् उल्लेख नहीं करते; क्योंकि बारहमे गुणस्थानतक सब ही पर्याप्ति और सब ही प्राण होते हैं । तेरहमे गुणस्थानमें भावेन्द्रिय नहीं होती; किन्तु द्रव्येन्द्रियकी अपेक्षा छहों पर्याप्ति होती हैं। परन्तु प्राण यहांपर चार ही होते हैं-वचन श्वासोच्छास आयु कायबल । इसी गुणस्थानमें वचनबलका अभाव होनेसे तीन और श्वासोच्छ्रासका अभाव होनेसे दो प्राण रहते हैं । चौदहमे गुणस्थानमें काययोगका भी अभाव होजानेसे केवल आयु प्राण ही रहता है। क्रमप्राप्त संज्ञाओंको गुणस्थानोंमें बताते हैं । छटोत्ति पढमसण्णा सकज सेसा य कारणावेक्खा। पुचो पढमणियट्टी सुहुमोत्ति कमेण सेसाओ ॥ ७०१ ॥ षष्ठ इति प्रथमसंज्ञा सकार्या शेषाश्च कारणापेक्षाः । अपूर्वः प्रथमानिवृत्तिः सूक्ष्म इति क्रमेण शेषाः ॥ ७०१ ॥ अर्थ-मिथ्यात्व गुणस्थानसे लेकर प्रमत्तपर्यन्त आहार भय मैथुन और परिग्रह ये चारों ही संज्ञी कार्यरूप होती हैं । किन्तु इसके ऊपर अप्रमत्त आदिकमें जो तीन आदिक संज्ञा होती हैं वे सब कारणकी अपेक्षासे होती हैं । छठे गुणस्थानमें आहारसंज्ञाकी व्युच्छित्ति होजाती है। शेष तीन संज्ञा कारणकी अपेक्षासे अपूर्वकरणपर्यन्त होती हैं। यहांपर ( अपूर्वकरणमें) भयसंज्ञाकी भी व्युच्छित्ति होजाती है। शेष दो संज्ञा अनिवृत्तिकरणके सवेदभागपर्यन्त होती हैं। यहां पर मैथुनसंज्ञाका विच्छेद होनेसे सूक्ष्मसांपरायमें एक परिग्रह संज्ञा ही होती है। इस परिग्रह संज्ञाका भी यहां विच्छेद होजानेसे ऊपर उपशांतकषाय आदि गुणस्थानोमें कोई भी संज्ञा नहीं होती। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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