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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। २४७ अर्थ-विग्रहगतिको प्राप्त होनेवाले चारों गतिसम्बन्धी जीव, प्रतर और लोकपूर्ण समुदात करनेवाले सयोगकेवली, अयोगकेवली, समस्त सिद्ध इतने जीव तो अनाहारक होते हैं । और इनको छोड़कर शेष जीव आहारक होते हैं । समुद्धात कितने प्रकारका होता है यह बताते हैं। वेयणकसायवेगुवियो य मरणंतियो समुग्धादो । तेजाहारो छटो सत्तमओ केवलीणं तु ॥ ६६६ ॥ वेदनाकषायवैगूर्विकाश्च मारणान्तिकः समुद्रातः । तेज आहारः षष्ठः सप्तमः केवलिनां तु ॥ ६६६ ॥ अर्थ-समुद्धातके सात भेद हैं । वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिक, तैजस, आहारक, केवल । इनका स्वरूप लेश्यामार्गणाके क्षेत्राधिकारमें कहा जाचुका है इस लिये यहां पर नहीं कहा है। समुद्धातका खरूप बताते हैं । मूलसरीरमछंडिय उत्तरदेहस्स जीवपिंडस्स । णिग्गमणं देहादो होदि समुग्धादणामं तु ॥ ६६७ ॥ मूलशरीरमत्यक्त्वा उत्तरदेहस्य जीवपिण्डस्य । निर्गमनं देहाद्भवति समुद्धातनाम तु ॥ ६६७ ॥ अर्थ-मूल शरीरको न छोड़कर तैजस कार्मण रूप उत्तर देहके साथ २ जीवप्रदेशोंके शरीरसे बाहर निकलनेको समुद्धात कहते हैं । आहारमारणंति य दुगं पि णियमेण एगदिसिगं तु । दसदिसि गदा हु सेसा पंच समुग्धादया होंति ॥ ६६८ ॥ आहारमारणांतिकद्विकमपि नियमेन एकदिशिकं तु । दशदिशि गता हि शेषाः पञ्चसमुद्धातका भवन्ति ।। ६६८ ।। अर्थ-उक्त सात प्रकारके समुद्धातोंमेंसे आहार और मारणान्तिक ये दो समुद्धात तो एक ही दिशामें गमन करते हैं; किन्तु बाकीके पांच समुद्धात दशों दिशाओंमें गमन करते हैं। आहारक और अनाहारकके कालका प्रमाण बताते हैं । अंगुलअसंखभागो कालो आहारयस्स उक्कस्सो । कम्मम्मि अणाहारो उक्कस्सं तिण्णि समया हु ॥ ६६९ ॥ अङ्गुलासंख्यभागः कालः आहारकस्योत्कृष्टः । कार्मणे अनाहारः उत्कृष्टः त्रयः समया हि ॥ ६६९॥ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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