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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । संज्ञीमार्गणागत जीवोंकी संख्याको बताते हैं । देवहिं सादिरेगो रासी सण्णीण होदि परिमाणं । तेणूणो संसारी सवेसिमसण्णिजीवाणं ॥ ६६२॥ देवैः सातिरेको राशिः संज्ञिनां भवति परिमाणम् ।। तेनोनः संसारी सर्वेषामसंज्ञिजीवानाम् ॥ ६६२ ॥ अर्थ-देवों के प्रमाणसे कुछ अधिक संज्ञी जीवोंका प्रमाण है । सम्पूर्ण संसारी जीव राशिमेंसे संज्ञी जीवोंका प्रमाण घटाने पर जो शेष रहे उतना ही समस्त असंज्ञी जीवोंका प्रमाण है। ॥ इति संशिमार्गणाधिकारः ॥ क्रमप्राप्त आहारमार्गणाका वर्णन करते हैं। उदयावण्णसरीरोदयेण तदेहवयणचित्ताणं । णोकम्मवग्गणाणं गहणं आहारयं णाम ॥ ६६३ ॥ उदयापन्नशरीरोदयेन तदेहवचनचित्तानाम् ।। नोकर्मवर्गणानां ग्रहणमाहारकं नाम ॥ ६६३ ॥ अर्थ-शरीरनामा नामकर्मके उदयसे देह वचन और द्रव्य मनरूप बननेके योग्य नोकर्मवर्गणाका जो ग्रहण होता है उसको आहार कहते हैं। निरुक्तिपूर्वक आहारकका अर्थ लिखते हैं। आहरदि सरीराणं तिण्हं एयदरवग्गणाओ य । भासमणाणं णियदं तम्हा आहारयो भणियो ॥ ६६४ ॥ आहरति शरीराणां त्रयाणामेकतरवर्गणाश्च । . भासामनसोर्नियतं तस्मादाहारको भणितः ॥ ६६४ ॥ अर्थ-औदारिक, वैक्रियिक, आहारक इन तीन शरीरोंमेंसे किसी भी एक शरीरके योग्य वर्गणाओंको तथा वचन और मनके योग्य वर्गणाओंको यथायोग्य जीवसमास तथा कालमें जीव आहरण ग्रहण करता है इसलिये इसको आहारक कहते हैं।। जीव दो प्रकारके होते हैं एक आहारक दूसरे अनाहारक । आहारक जीव कौन २ होते हैं और अनाहारक जीव कौन २ होते हैं यह बताते हैं। विग्गहगदिमावण्णा केवलिणो समुग्घदो अजोगी य । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारया जीवा ॥ ६६५ ॥ विग्रहगतिमापन्नाः केवलिनः समुद्धाता अयोगिनश्च ।। सिद्धाश्च अनाहाराः शेषा आहारका जीवाः ॥ ६६५ ॥ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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