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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गोम्मटसारः । २०५ तका ग्रहण होनेपर एकवार मिश्रका ग्रहण होता है । इस तरह अनंतवार मिश्रका ग्रहण होकर पीछे अनंतवार ग्रहीतका ग्रहण करके एकवार अग्रहीतका ग्रहण होता है । जिस तरह एकवार अग्रहीतका ग्रहण किया उस ही क्रमसे अनंतवार अग्रहीतका ग्रहण हो चुकने पर नोकर्मपुद्गल परिवर्तनका चौथा भेद समाप्त होता है । इस चतुर्थ भेदके समाप्त होचुकने पर, नोकर्मपुद्गलपरिवर्तन के प्रारम्भके प्रथम समय में वर्ण गन्ध आदिके जिस भावसे युक्त जिस पुद्गलद्रव्यको ग्रहण किया था उस ही भावसे युक्त उस शुद्ध महीतरूप पुद्गलद्रव्यको जीव ग्रहण करता है । इस सबके समुदायको नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन कहते हैं । तथा इसमें जितना काल लगे उसको नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनका काल कहते हैं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir इस ही तरह दूसरा कर्मपुद्गलपरिवर्तन भी होता है । विशेषता इतनी ही है कि जिस तरह नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनमें नोकर्मपुद्गलोंका ग्रहण होता है उस ही तरह यहां पर कर्म - पुलका ग्रहण होता है । परन्तु क्रममें कुछ भी विशेषता नहीं है । जिस तरह के चार भेद नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनमें होते हैं उस ही तरह कर्मद्रव्यपरिवर्तन में भी चार भेद होते हैं । इन चार भेदों में भी अग्रहीतग्रहणका काल सबसे अल्प है, इससे अनंतगुणा का मिश्रग्रहणका है । इससे भी अनंतगुणा ग्रहीतग्रहणका जघन्यकाल है इससे अनंतगुणा ग्रहीतग्रहणका उत्कृष्ट काल है । क्योंकि प्राय: करके उस ही पुद्गलद्रव्यका ग्रहण होता है। कि जिसके साथ द्रव्य क्षेत्र काल भावका संस्कार हो चुका है । इस ही अभिप्राय से यह सूत्र कहा है कि : सुहमट्ठिदिसंजुत्तं आसण्णं कम्मणिजरामुक्कं । पाऐण एदि गहणं दवमणिसिंठाणं ॥ १ ॥ सूक्ष्मस्थितिसंयुक्तमासनं कर्मनिर्जरामुक्तम् । प्रायेणैति ग्रहणं द्रव्यमनिर्दिष्टसंस्थानम् ॥ १ ॥ अर्थ – जिन कर्मरूप परिणत पुगलोंकी स्थिति अल्प थी अत एव पीछे निर्जीर्ण होकर जिनकी कर्मरहित अवस्था होगई हो परन्तु जीवके प्रदेशोंके साथ जिनका एकक्षेत्रावगाह हो तथा जिनका संस्थान (आकार) कहा नहीं जा सकता इस तरहके पुद्गल द्रव्यका ही प्रायःकरके जीव ग्रहण करता है । भावार्थ - यद्यपि यह नियम नहीं है कि इस ही तरहके पुद्गलका जीव ग्रहण करै तथापि बहुधा इस ही तरहके पुगलका ग्रहण करता है; क्योंकि यह द्रव्य क्षेत्र काल भावसे संस्कारित है । द्रव्यपरिवर्तन के उक्त चार भेदोंका इस गाथामें निरूपण किया है: - न अगहिदमिस्सं गहिदं मिस्समगहिदं तहेव गहिदं च । frei हिदमगहिदं गहिदं मिस्सं अगहिदं च ॥ २ ॥ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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