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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २०४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । OOX द्रव्वपरिवर्तन यत्र. ००४ ००१ । ००४ ००x ००१ xxo xx१ xx० xx० xx१ xx१xxo xx१ xx१ xx० ११४ । ११० । ११४ । ११४ । ११० xx० xx१ ११४ इस यन्त्रमें शून्यसे अग्रहीत, हंसपदसे ( x इस चिह्नसे ) मिश्र और एकके अंकसे ग्रहीत समझना चाहिये । तथा दोवार लिखनेसे अनन्तवार समझना चाहिये । इस यन्त्रके देखनेसे स्पष्ट होता है कि निरन्तर अनन्तवार अग्रहीतका ग्रहण होचुकनेपर एक वार मिश्रका ग्रहण होता है, मिश्रग्रहणके बाद फिर निरन्तर अनन्तवार अग्रहीतका ग्रहण हो चुकने पर एकवार मिश्रका ग्रहण होता है। इस ही क्रमसे अनन्तवार मिश्रका ग्रहण हो चुकने पर अग्रहीतग्रहणके अनंतर एक वार ग्रहीतका ग्रहण होता है । इसके बाद फिर उस ही तरह अनंत वार अग्रहीतका ग्रहण हो चुकने पर एक बार मिश्रका ग्रहण और मिश्रग्रहणके बाद फिर अनन्तवार अग्रहीतका ग्रहण होकर एकवार मिश्रका ग्रह्ण होता है। तथा मिश्रका ग्रहण अनन्तवार होचुकने पर अनन्तवार अग्रहीतका ग्रहण करके एकवार फिर ग्रहीतका ग्रहण होता है। इस ही क्रमसे अनन्तवार ग्रहीतका ग्रहण होता है । यह अभिप्राय सूचित करनेके लिये ही प्रथम परिमें पहले तीन कोठोंके समान दूसरे भी तीन कोठे किये हैं । अर्थात् इस क्रमसे अनंतवार ग्रहीतका ग्रहण होचुकने पर नोकर्मपुद्गलपरिवर्तनके चार भेदोंमेंसे प्रथम भेद समाप्त होता है । इसके बाद दूसरे भेदका प्रारम्भ होता है । यहां पर अनन्तवार मिश्रका ग्रहण होनेपर एकवार अग्रहीतका ग्रहण, फिर अनंतवार मिश्रका ग्रहण होने पर एक वार अग्रहीतका ग्रहण इस ही क्रमसे अनन्तवार अग्रहीतका ग्रहण होकर अनंत वार मिश्रका ग्रहण करके एक वार ग्रहीतका ग्रहण होता है । जिस क्रमसे एकवार ग्रहीतका ग्रहण किया उस ही क्रमसे अनंतवार ग्रहीतका ग्रहण होचुकने पर नोकर्मपुद्गलपरिवर्तनका दूसरा भेद समाप्त होता है । इसके वाद तीसरे भेदमें अनन्तवार मिश्रका ग्रहण करके एकवार ग्रहीतका ग्रहण होता है, फिर अनन्तवार मिश्रका ग्रहण करके एकवार ग्रहीतका ग्रहण इस क्रमसे अनंतवार ग्रहीतका ग्रहण हो चुकने पर अनंतवार मिश्रका ग्रहण करके एकवार अग्रहीतका ग्रहण होता है । जिस तरह एकवार अग्रहीतका ग्रहण किया उस ही तरह अनंतवार अग्रहीतका ग्रहण होनेपर नोकर्मपुद्गलपरिवर्तनका तीसरा भेद समाप्त होता है । इसके बाद चौथे भेदका प्रारम्भ होता है, इसमें प्रथम ही अनन्तवार ग्रहीतका ग्रहण करके एकवार मिश्रका ग्रहण होता है, इसकेबाद फिर अनंतवार ग्रही For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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