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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गोम्मटसारः । २०३ नहीं हैं । भावार्थ — जिसमें अनंत चतुष्टयके अभिव्यक्त होने की योग्यता ही न हो उसको 1 भव्य कहते हैं । अतः ये अभव्य भी नहीं हैं; क्योंकि इन्होने अनंत चतुष्टयको प्राप्त कर लिया है । और भव्यत्वका परिपाक हो चुका अतः अपरिपक्क अवस्थाकी अपेक्षासे भव्य भी नहीं हैं । भव्यमार्गणा में जीवों की संख्या बताते हैं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अवरो जुत्ताणंतो अभवरासिस्स होदि परिमाणं । ते विणो सो संसारी भवरासिस्स ॥ ५५९ ॥ अवरो युक्तानन्तः अभव्यराशेर्भवति परिमाणम् । तेन विहीनः सर्वः संसारी भव्यराशेः ॥ ५५९ ॥ I अर्थ --- जघन्य युक्तानन्तप्रमाण अभव्य राशि है । और सम्पूर्ण संसारी जीवराशिमेंसे अभव्यराशिका प्रमाण घटाने पर जो शेष रहे उतना ही भव्यराशिका प्रमाण है। भावार्थभव्यराशि बहुत अधिक है और अभव्य राशि बहुत थोड़ी है । अभव्य जीव सदा पांच परिवर्तन रूप संसरसे युक्त ही रहते हैं । एक अवस्थासे दूसरी अवस्थाका प्राप्त होना इसको संसार-परिवर्तन कहते हैं । इस संसार अर्थात् परिवर्तन के पांच भेद हैं । द्रव्य क्षेत्र काल भव भाव । द्रव्यपरिवर्तनके दो भेद हैं, एक नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन दूसरा कर्मद्रव्यपरिवर्तन । यहां पर इन परिवर्तनोंका क्रमसे स्वरूप बताते हैं । किसी जीवने, स्निग्ध रूक्ष वर्ण गन्धादिके तीव्र मंद मध्यम भावोंमें से यथासम्भव भावोंसे युक्त, औदारिकादि तीन शरीरों में से किसी शरीर सम्बन्धी छह पर्याप्तिरूप परिणमनेके योग्य पुद्गलोंका एक समय में ग्रहण किया । पीछे द्वितीयादि समयोंमें उस द्रव्यकी निर्जरा करदी । तथा पीछे अनंतबार अग्रहीत पुद्गलोंको ग्रहण करके छोड़ दिया, अनन्तवार मिश्रद्रव्यको ग्रहण करके छोड़दिया, अनंतवार ग्रहीतको भी ग्रहण करके छोड़ दिया । जब वही जीव उन ही निग्ध रूक्षादि भावोंसे युक्त उनही पुद्गलों को जितने समय में ग्रहण करें उतने कालसमुदायको नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन कहते हैं । 1 पूर्व में ग्रहण किये हुए परमाणु जिस समय प्रबद्धरूप स्कन्धमें हों उसको ग्रहीत कहते हैं । जिस समयबद्ध में एसे परमाणु हों कि जिनका जीवने पहले ग्रहण नहीं किया हो उसको अग्रहीत कहते हैं । जिस समयबद्ध में दोनों प्रकारके परमाणु हों उसको मिश्र कहते हैं । अग्रहीत परमाणु भी लोकमें अनन्तानन्त हैं; क्योंकि सम्पूर्ण जीवराशिका समयप्रबद्धके प्रमाणसे गुणा करने पर जो लब्ध आवे उसका अतीतकालके समस्त समयप्रमाणसे गुणा करनेपर जो लब्ध आवे उससे भी अनन्तगुणा पुद्गलद्रव्य है । इस परिवर्तनका काल अग्रहीतग्रहण ग्रहीतग्रहण मिश्रग्रहण के भेदसे तीन प्रकारका है । इसकी घटना किस तरह होती है यह अनुक्रम यन्त्रद्वारा बताते हैं । For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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