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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १७७ गोम्मटसारः। दो गाथाओंद्वारा लेश्यामार्गणाके अधिकारोंका नामनिर्देश करते हैं । णिदेसवण्णपरिणामसंकमो कम्मलक्खणगदी य । सामी साहणसंखा खेत्तं फासं तदो कालो ॥ ४९० ॥ अंतरभावप्पबहु अहियारा सोलसा हवंतित्ति । लेस्साण साहण] जहाकम तेहिं वोच्छामि ॥ ४९१॥ निर्देशवर्णपरिणामसंक्रमाः कर्मलक्षणगतयश्च । स्वामी साधनसंख्ये क्षेत्रं स्पर्शस्ततः कालः ॥ ४९० ॥ अन्तरभावाल्पबहुत्वमधिकाराः षोडश भवन्तीति । लेश्यानां साधनार्थ यथाक्रमं तैर्वक्ष्यामि ॥ ४९१ ॥ अर्थ-निर्देश, वर्ण, परिणाम, संक्रम, कर्म, लक्षण, गति, खामी, साधन, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व ये लेश्याओंकी सिद्धिके लिये सोलह अधिकार परमागममें कहे हैं । इनके ही द्वारा क्रमसे लेश्याओंका निरूपण करेंगे। प्रथम निर्देशकेद्वारा लेश्याका निरूपण करते हैं। किण्हा णीला काऊ तेऊ पम्मा य सुक्कलेस्सा य । लेस्साणं णिहेसा छच्चेव हवंति णियमेण ॥ ४९२ ॥ कृष्णा नीला कापोता तेजः पद्मा च शुक्ललेश्या च । लेश्यानां निर्देशाः षट् चैव भवन्ति नियमेन ॥ ४९२ ॥ अर्थ-लेश्याओंके नियमसे ये छह निर्देश हैं । कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या ( पीतलेश्या), पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या । भावार्थ-इस गाथामें कहे हुए एव शब्दके द्वारा ही नियम अर्थ सिद्ध होजानेसे पुनः नियम शब्दका ग्रहण करना व्यर्थ ठहरता है । अतः वह व्यर्थ ठहरकर ज्ञापन करता है कि लेश्याके यद्यपि सामान्यकी अपेक्षा छह भेद हैं; तथापि पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे लेश्याओंके असंख्यात लोकप्रमाण भेद होते हैं। वर्णकी अपेक्षासे वर्णन करते हैं । वण्णोदयेण जणिदो सरीरवण्णो दु दवदो लेस्सा । सा सोढा किण्हादी अणेयभेया सभेयेण ॥ ४९३॥ वर्णोदयेन जनितः शरीरवर्णस्तु द्रव्यतो लेश्या । सा षोढा कृष्णादिः अनेकभेदा स्वभेदेन ॥ ४९३ ॥ अर्थ-वर्ण नामकर्मके उदयसे जो शरीरका वर्ण होता है उसको द्रव्यलेश्या कहते गो. २३ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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