SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १७६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । उसमेंसे कुछ कम व्यक्तरूप चक्षुदर्शनवालोंका प्रमाण है । अवधिज्ञानियोंकी बराबर अवघिदर्शनवाले और केवलज्ञानियोंकी बराबर केवल दर्शनवाले जीव हैं । अचक्षुदर्शनवालोंका प्रमाण बताते हैं। एइंदियपहुदीणं खीणकसायंतणंतरासीणं । जोगो अचक्खुदंसणजीवाणं होदि परिमाणं ॥४८७ ॥ एकेन्द्रियप्रभृतीनां क्षीणकषायान्तानन्तराशीनाम् । योगः अचक्षुर्दर्शनजीवानां भवति परिमाणम् ॥ ४८७ ॥ अर्थ-एकेन्द्रिय जीवोंसे लेकर क्षीणकषायपर्यन्त अनन्तराशिके जोड़को अचक्षुदर्शनवाले जीवोंका प्रमाण समझना चाहिये । ॥ इति दर्शनमार्गणाधिकारः ॥ क्रमप्राप्त लेश्यामार्गणाका वर्णन करनेके पहले लेश्याका निरुक्तिपूर्वक लक्षण कहते हैं । लिंपइ अप्पीकीरइ एदीए णियअपुण्णपुण्णं च । जीवोत्ति होदि लेस्सा लेस्सागुणजाणयक्खादा ॥ ४८८ ॥ लिंपत्यात्मीकरोति एतया निजापुण्यपुण्यं च। जीव इति भवति लेश्या लेश्यागुणज्ञायकाख्याता ॥ ४८८ ॥ अर्थ-लेश्याके गुणको-खरूपको जाननेवाले गणधरादि देवोंने लेश्याका खरूप ऐसा कहा है कि जिसके द्वारा जीव अपनेको पुण्य और पापसे लिप्त करै-पुण्य और पापके अधीन करै उसको लेश्या कहते हैं। उक्त अर्थको ही स्पष्ट करते हैं। जोगपउत्ती लेस्सा कसायउदयाणुरंजिया होइ। तत्तो दोण्णं कजं बंधचउकं समुद्दिद्वं॥४८९ ॥ ___ योगप्रवृत्तिर्लेश्या कषायोदयानुरञ्जिता भवति । ततः द्वयोः कार्य बन्धचतुष्कं समुद्दिष्टम् ॥ ४८९ ॥ अर्थ-कषायोदयसे अनुरक्त योगप्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं । इस ही लिये दोनोंका बन्धचतुष्करूप कार्य परमागममें कहा है । भावार्थ--कषाय और योग इन दोनोंके जोड़को लेश्या कहते हैं । इस ही लिये लेश्याका कार्य बन्धचतुष्क है; क्योंकि बन्धचतुकमेंसे प्रकृति और प्रदेश-बन्ध योगके द्वारा होता है। और स्थिति अनुभाग बन्ध कषायके द्वारा होता है। जहां पर कषायोदय नहीं होता वहांपर केवल योगको उपचारसे लेश्या कहते हैं। अतएव वहां पर उपचरित लेश्याका कार्य भी केवल प्रकृति प्रदेश बन्ध ही होता है, स्थिति अनुभागबन्ध नहीं होता। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy