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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। १७५ अर्थ-अवधिज्ञान होनेके पूर्व समयमें अवधिके विषयभूत परमाणुसे लेकर महास्कन्धपर्यन्त मूर्तद्रव्यको जो सामान्यरूपसे देखता है उसको अवधिदर्शन कहते हैं । इस अवधिदर्शनके अनन्तर प्रत्यक्ष अवधि ज्ञान होता है । केवलदर्शनको कहते हैं। बहुविहबहुप्पयारा उज्जोवा परिमियम्मि खेत्तम्मि । लोगालोगवितिमिरो जो केवलदंसणुजोओ ॥ ४८५ ॥ बहुविधबहुप्रकारा उद्योता: परिमिते क्षेत्रे । लोकालोकवितिमिरो य: केवलदर्शनोद्योतः ॥ ४८५ ॥ अर्थ-तीत्र मंद मध्यम आदि अनेक अवस्थाओंकी अपेक्षा तथा चन्द्र सूर्य अदि पदार्थोंकी अपेक्षा अनेक प्रकारके प्रकाश जगत्में परिमिति क्षेत्रमें रहते हैं; किन्तु जो लोक और अलोक दोनों जगह प्रकाश करता है ऐसे प्रकाशको केवलदर्शन कहते हैं । भावार्थ-समस्त पदार्थोंका जो सामान्य दर्शन होता है उसको केवल दर्शन कहते हैं । दर्शनमार्गणामें दो गाथाओंद्वारा जीवसंख्या बताते हैं । जोगे चउरक्खाणं पंचक्खाणं च खीणचरिमाणं । चक्खूणमोहिकेवलपरिमाणं ताण णाणं च ॥ ४८६ ॥ योगे चतुरक्षाणां पञ्चाक्षाणां च क्षीणचरमाणाम् । चक्षुषामवधिकेवलपरिमाणं तेषां ज्ञानं च ॥ ४८६ ॥ अर्थ-क्षीणकषाय गुणस्थानपर्यन्त जितने पञ्चेन्द्रिय हैं उनका तथा चतुरिन्द्रिय जीवोंकी संख्याका परस्पर जोड़ देनेसे जो राशि उत्पन्न हो उतने चक्षुर्दर्शनी जीव हैं। और अवधिदज्ञानी तथा केवलज्ञानी जीवोंका जितना प्रमाण है उतना ही अवधिदर्शनी तथा केवलदर्शनवालोंका प्रमाण है। भावार्थ-चक्षुदर्शन दो प्रकारका होता है, एक शक्तिरूप दूसरा व्यक्तिरूप । चतुरिन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके शक्तिरूप चक्षुदर्शन होता है, और पर्याप्त जीवोंके व्यक्तिरूप चक्षुदर्शन होता है । इनमेंसे प्रथम शक्तिरूप चक्षुदर्शनवालोंका प्रमाण बताते हैं। आवलीके असंख्यातमे भागका प्रतराङ्गुलमें भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसका भी जगत्प्रतरमें भाग देनेसे जितना लब्ध आवे उतनी राशिप्रमाण त्रसराशि है । उसमेंसे त्रैराशिक द्वारा लब्ध चतुरिन्द्रिय पञ्चेन्द्रियोंके प्रमाणमें से कुछ कम करना; क्योंकि द्वीन्द्रियादि जीवोंका प्रमाण उत्तरोत्तर कुछ २ कम २ होता गया है । तथा लब्ध राशिमेंसे पर्याप्त जीवोंका प्रमाण घटाना। शेष शक्तिरूप चक्षुदर्शनवाले जीवोंका प्रमाण है । इस ही तरह पर्याप्त त्रस राशिमें चारका भाग देकर दोसे गुणा करनेपर जो राशि उत्पन्न हो For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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